गांव व्यवस्था का सांस्कृतिक उत्सव, सुरोती एवं खिचड़ी पर्व में राऊतों की गौरवशाली भूमिका

लोक-परंपरा, पशु सम्मान और प्रकृति के प्रति आभार से जुड़ा दिवाड़ पर्व - गांव व्यवस्था का अनूठा सांस्कृतिक उत्सव

Oct 20, 2025 - 11:05
Oct 20, 2025 - 11:05
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गांव व्यवस्था का सांस्कृतिक उत्सव, सुरोती एवं खिचड़ी पर्व में राऊतों की गौरवशाली भूमिका

UNITED NEWS OF ASIA. राजेन्द्र मंडावी, कांकेर। छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचलों में दीपावली के अवसर पर मनाया जाने वाला सुरोती एवं खिचड़ी पर्व, जिसे दिवाड़ भी कहा जाता है, गांव व्यवस्था की सबसे विशिष्ट लोक परंपरा मानी जाती है। इस पर्व का नायक होता है - कोपाल (राऊत या यादव)। लोक कहावत भी प्रचलित है -
“गोंड नहाये नवा दिन, और राऊत नहाये दिवारी दिन।”
अर्थात दिवाली के असली नायक राऊत ही हैं।

राऊत - गांव व्यवस्था का सेवक और संरक्षक

गांव समाज में राऊत की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। वह वर्षभर गांव के गाय–बैल जैसे पशुओं की सेवा और देखभाल करता है। बारिश, धूप या ठंड - किसी भी परिस्थिति में वह नि:स्वार्थ भाव से अपनी सेवा देता है। फसल उत्पादन में पशुओं की अहम भूमिका को देखते हुए राऊत को गांव का सेवक और संरक्षक दोनों माना जाता है। उसकी सेवा के बदले ग्रामीण समुदाय उसे आर्थिक सहयोग और सम्मान प्रदान करता है।

सुरोती पर्व - राऊत के गौरव का दिन

दिवाली की रात से आरंभ होने वाला सुरोती पर्व राऊत के लिए सम्मान और गर्व का क्षण होता है। गांव के हर घर में गायों को सुहई और बैलों को जेठा बांधा जाता है। इस दौरान पारंपरिक लोकगीत और दोहा गांव की गलियों में गूंजते हैं -
“अरे रे रे भाई रे... उरन चेंकलें, पुरन चेंकलें, चेंकलें चिंगड़ाघाट रे...”
ऐसे लोकगीत वातावरण में लोक–संगीत का उल्लास भर देते हैं।

परंपरा और आयोजन की विधि

गांव के बुमयार, जिमिदारिन याया और मावली याया की अनुमति से राऊत अपने पेन–पुरखों की पूजा–अर्चना कर गांव में सुहई और जेठा बांधने का शुभारंभ करता है।
गांव की यह परंपरा क्षेत्र अनुसार थोड़ी भिन्न होती है, परंतु उद्देश्य एक ही - समाज, सेवा और एकता को सुदृढ़ बनाना।

राऊत नाचा और लोकनायक का सम्मान

सुरोती पर्व की रात राऊत अपने दल के साथ मोहरी–बाजे, नृत्य और राऊत नाचा के साथ गांव में भ्रमण करता है। गांववाले उनका स्वागत करते हैं, पैर धोकर टिका लगाते हैं और भेंट स्वरूप रोसई (सहयोग) देते हैं। गाय–बैल को सजाया जाता है, दीप जलाए जाते हैं और पेन–पुरखों का तर्पण कर कृतज्ञता प्रकट की जाती है।
कहा भी जाता है - “राऊत ठेंगा के साथ-साथ शीत भी लाता है।”
अर्थात सुरोती के साथ सर्दी की हल्की ठंडक गांव में उतर आती है।

खिचड़ी पर्व - पशुओं के सम्मान का प्रतीक

खिचड़ी पर्व कृषि और पशु दोनों के प्रति आभार का प्रतीक है। इस दिन बैलों को फूल–माला और सुहई–जेठा पहनाकर नए फसल से बनी खिचड़ी खिलाई जाती है। इसमें कुमड़ा, उड़द, जुड़ंगा, शकरकंद, कोचई, ईमली आदि स्थानीय सामग्री का उपयोग होता है। पहले यह खिचड़ी पेन–पुरखों को अर्पित की जाती है, फिर पशुओं को और अंत में परिवार इसे प्रसाद रूप में ग्रहण करता है।
बैल कोठा और घरों में सेला- सिलयारी बांधी जाती है, और पूरा गांव उत्सव के उल्लास से झूम उठता है।

प्रकृति आधारित और प्रदूषणमुक्त लोक उत्सव

सुरोती और खिचड़ी पर्व पूरी तरह प्रकृति आधारित, सादगीपूर्ण और प्रदूषणमुक्त उत्सव हैं। आधुनिकता की आंधी ने भले ही इन लोक पर्वों में आडंबर और शोरगुल जोड़ दिया हो, परंतु इनका मूल सार सेवा, सम्मान और सादगी में ही निहित है।
आज आवश्यकता है कि हम इन परंपराओं को सहेजें, ताकि हमारी संस्कृति, पर्यावरण और समाज का संतुलन बना रहे।

अंत में -

सुरोती और खिचड़ी पर्व हमें यह सिखाते हैं कि सच्ची खुशी प्रकृति, सेवा और परंपरा में ही है।
इन्हीं शुभकामनाओं के साथ -
सभी को सुरोती एवं दिवाड़ (सिकड़ी तिन्दना पंडुम) की हार्दिक बधाई।
जय जोहार… सेवा जोहार…