
UNITED NEWS OF ASIA. नई दिल्ली । भारत के सुप्रीम कोर्ट ने आज एक ऐतिहासिक निर्णय में कहा कि डिजिटल सेवाओं तक पहुँच अब संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत ‘मौलिक अधिकार’ है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि एसिड अटैक पीड़ितों और दृष्टिबाधित व्यक्तियों को KYC प्रक्रिया से वंचित करना अब असंवैधानिक है। यह फैसला सामाजिक समावेशन की दिशा में एक बड़ा कदम माना जा रहा है।
न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने यह फैसला दो जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए दिया।
क्या कहा कोर्ट ने?
कोर्ट ने कहा कि डिजिटल एक्सेस जीवन के अधिकार का अभिन्न हिस्सा है, और यह अनुच्छेद 14 और 15 के तहत समानता और भेदभाव से मुक्ति के अधिकार से भी जुड़ा हुआ है।
न्यायालय ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि वह यह सुनिश्चित करे कि KYC जैसी अनिवार्य डिजिटल प्रक्रियाएं सभी नागरिकों के लिए सुलभ हों, विशेषकर एसिड अटैक पीड़ितों, दृष्टिहीनों और अन्य विकलांगजनों के लिए।
20 ठोस दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं, जो KYC प्रक्रिया में तकनीकी और नीतिगत बदलाव की रूपरेखा तय करेंगे।
क्या है मामला?
याचिका अमर जैन, एक 100% दृष्टिहीन वकील और एक्सेसिबिलिटी एक्सपर्ट द्वारा दाखिल की गई थी, जिन्हें डिजिटल KYC में नियमित रूप से दिक्कतें आती हैं।
दूसरी याचिका प्रज्ञा प्रसून, एक एसिड अटैक पीड़िता द्वारा दायर की गई, जिन्हें ICICI बैंक ने ‘लाइव फोटो’ और ‘आंख झपकाने’ की अनिवार्यता के कारण खाता खोलने से मना कर दिया था।
KYC के मानकों में बदलाव की जरूरत क्यों?
वर्तमान डिजिटल KYC प्रक्रिया में ग्राहक को कैमरे के सामने आंख झपकाने और चेहरा स्पष्ट दिखाने जैसे कार्य करने होते हैं, जो दृष्टिहीनों और चेहरा विकृति झेल रहे लोगों के लिए असंभव है।
कोर्ट ने माना कि यह प्रणाली समावेशी नहीं है और इसे संशोधित करना संवैधानिक दायित्व है।
फैसले का असर और महत्व
यह निर्णय भारत में लाखों विकलांग नागरिकों और डिजिटल रूप से वंचित वर्गों के लिए समान अवसर और सम्मानजनक डिजिटल पहचान का मार्ग प्रशस्त करेगा।
विशेषज्ञों ने इसे डिजिटल इंडिया को वास्तविक समावेशी स्वरूप देने की दिशा में मील का पत्थर बताया है।
अब क्या आगे?
सुप्रीम कोर्ट का विस्तृत आदेश जल्द सार्वजनिक होगा, जिसमें दिशा-निर्देशों की पूरी जानकारी होगी।
सरकार और सभी डिजिटल सेवा प्रदाताओं को इन निर्देशों को अनिवार्य रूप से लागू करना होगा।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल तकनीकी समावेशन को बढ़ावा देता है, बल्कि यह साबित करता है कि ‘डिजिटल इंडिया’ तब तक अधूरा है जब तक उसमें हर नागरिक की समान भागीदारी न हो। यह एक संवैधानिक, नैतिक और तकनीकी सुधार की मजबूत शुरुआत है।
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