क्या भाजपा 2023 विधानसभा चुनाव के लिए छत्तीसगढ़ में किसी को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करेगी?
अगर भाजपा चेहरा बनाकर गई तो क्या फायदा होगा या क्या नुकसान?
अगर भाजपा बिना चेहरे के गई तो क्या नफा-नुकसान होगा?
अगर भाजपा ने चेहरा बनाया तो किसे बनाएगी?
UNITED NEWS OF ASIA. छत्तीसगढ़ में भाजपा के सामने दुविधा है और सुविधा भी। वह चाहती है किसी को चेहरा बनाए, लेकिन आपसी तकरार का भय सता रहा है। राजनेता जानते हैं मुख्यमंत्री एक ही होता है, ऐसे में तो जिन्हें नाराज होना है वे अब भी हो सकते हैं और जिन्हें नहीं होना वे कभी नहीं होंगे। खैर, सियासत इतनी आसान नहीं। छत्तीसगढ़ में भाजपा के सामने दो बातें साफ हैं। पहली, वह 2018 के प्रदर्शन को सुधारने जा रही है और दूसरी अगर सरकार बनाने की स्थिति बनी तो चेहरा ओबीसी ही रखना होगा। फिलहाल पार्टी में चेहरा बनाने को लेकर दो मत हैं, एक मत के मुताबिक इससे गुटबाजी और बढ़ेगी तो दूसरा मत कहता है, यह जनता में भरोसा देने के लिए जरूरी है।
चेहरे को लेकर माथापच्ची क्यों?
इसकी कई वजह हैं। सबसे पहली वजह, छत्तीसगढ़ में मौजूदा सरकार के क्वांटिफाइबल डेटा के मुताबिक ओबीसी 42 परसेंट हैं। यानि सबसे ज्यादा। दूसरी बजह मौजूदा मुख्यमंत्री खुद ओबीसी हैं। तीसरी वजह छत्तीसगढ़ में ओबीसी में भी कुर्मी और साहुओं का वर्चस्व है। चौथी वजह इनमें भी कुर्मियों की तुलना में साहू अधिक हैं। पांचवी वजह, साहू मूलतः भाजपा के कोर वोटर रहे हैं। बस इसलिए ओबीसी साहू भाजपा से बड़ा कुछ चाहते हैं। बदले में बल्क वोट्स भाजपा को दे सकते हैं।
2018 में भाजपा सिर्फ 35 परसेंट वोट पर आ सिमटी थी, जो 2019 के लोकसभा चुनावों में बढ़कर 50 परसेंट हो गए। 2018 में जो भाजपा सिर्फ 15 सीटें जीती वही लोकसभा में 9 सीटों के साथ 66 विधानसभा सीटों पर जीती थी।
इस गणित के पीछे के गणित को समझा गया तो पता चला एक तो मोदी का अपना जादू है ही, साथ ही 2018 में भाजपा से नाराज होकर छिटके साहू मतदाता वापस भाजपा में आ गए। साहू भाजपा से नाराज थे, क्योंकि वे एक छोर पर किसान भी हैं। कांग्रेस का किसान वाला वायदा ज्यादा मुफीद लगा। बस साहू चले गए, लेकिन अब भाजपा इसकी क्षतिपूर्ति कैसे करे?
2018 में भाजपा ने 14 साहू प्रत्याशी मैदान में उतारे थे, लेकिन इनमें से सिर्फ इकलौती रंजना दिपेंद्र साहू ही धमतरी से जीत पाईं। बाकी 13 हारे। इनमें भी ज्यादातर की बुरी हार हुई थी। अब यहां यह समझना होगा कि साहू नाराज थे तो साहू प्रत्याशियों को क्यों हराया? सवाल एकदम सही है। इसका अर्थ यह है, साहू समाज भाजपा के साथ अब सिर्फ विधायकी से डील नहीं करेगा, बल्कि वह बड़ा कुछ चाहता है। गांवों में किसानों में अग्रणी यह समाज शहरों में भी व्यवसाय, सामाजिक कार्य और अन्य क्षेत्रों में आगे है। मतलब बहुत साफ है। साहू समाज भाजपा से मुख्यमंत्री पद जैसे बड़े अवार्ड चाहता है।
अब सवाल ये है कि भाजपा यह घोषणा करके बघेल के साथ कुर्मी वोटरों का ध्रुवीकरण कैसे रोकेगी? कलार, यादव, देवांगन जैसी अन्य पिछड़ी जातियों को कैसे अपने साथ जोड़े रखेगी। यह पार्टी जानती है कि साहू को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनाते ही कुर्मी समाज बघेल के पक्ष में खड़ा दिखेगा, लेकिन पार्टी साथ में यह भी जानती है कि वह आज भी बहुतायत में बघेल के साथ खड़ा हुआ है। यानि इस सवाल का उत्तर साफ है। भाजपा अगर साहू मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं देती तो ही कुर्मी उसके साथ जुड़े रहेंगे, कहना थोड़ा कठिन है।
ऐसे में यह कुछ फॉर्मूले बनते हैं
पहला फॉर्मूला तो यह बनता है कि भाजपा साहू मुख्यमंत्री का ऐलान करके अधिकतर सीटों पर अन्य समीकऱणों के आधार पर टिकट देकर बाकियों को साध सकती है। दूसरा फॉर्मूला यह बनता है कि पार्टी चेहरा घोषित ही न करे। इसके स्थान पर वह एक-एक सीट पर कैल्कुलेटिव प्रत्याशियों का चयन करे, लेकिन इसमें बड़ी रिस्क बरकरार रहेगी। छत्तीसगढ़ में जो कांग्रेस का किसान कॉम्बिनेशन बना है वह बिना परसेप्शन के टूटेगा नहीं। किसानों में सबसे ज्यादा संख्या साहू समाज के लोगों की ही है। ऐसे में साहू समाज भाजपा से कुछ घोषणा से नीचे डील करे यह दिखता नहीं।
तो डील क्या हो सकती है?
अब सवाल ये है कि साहू समाज डील क्या करे? क्या वह साहू समाज के प्रदेश अध्यक्ष से प्रसन्न हो जाए या कि मुख्यमंत्री पद तक के लिए अड़े। साहू समाज की किसी ऐसी एकल इकाई में यह बात सामने नहीं आई और न आएगी, लेकिन साउंड यह जा रहा है कि साहू मुख्यमंत्री अपने समाज से चाहते हैं।
परसेप्शन बड़ी चीज है
भाजपा अब मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं करती तो समस्या यह रहेगी कि साहू कैसे उस पर भरोसा करें और करती है तो जीत की गारंटी कैसे हो? इन सवालों में उलझी भाजपा कांग्रेस का वेट कर रही है। चूंकि कांग्रेस साहू समाज के जवाब में कहीं आदिवासी चेहरा न घोषित कर दे, तब तो मामला फंस जाएगा। ऐसी स्थितियों से बचने के पहले भाजपा सारे पहलुओं को ठोक-बजाना चाहती है। क्योंकि परसेप्शन बड़ी चीज है। भाजपा ओबीसी और साहू का परसेप्शन बना लेती है लेकिन आदिवासी परसेप्शन इस पर भारी पड़ जाएगा।
तो क्या साहू समाज का मुख्यमंत्री नहीं बनेगा
ऐसा नहीं है, साहू समाज का मुख्यमंत्री बन सकता है। लेकिन भाजपा इस मसले पर कुछ भी खुलेआम नहीं करना चाहती। इसलिए उसने पहले अपना प्रदेश अध्यक्ष साहू समाज से अरुण साव को बनाकर साहू मतदाताओं को आश्वस्त किया है। अगर इस आश्वस्ती से ही काम चल गया तो चेहरा घोषित नहीं किया जाएगा, लेकिन इसमें भी भारी रिस्क है। इसलिए पार्टी अरुण साव को चेहरा बनाकर चुनाव में जा सकती है। या फिर भाजपा साव को हर मोर्चे पर आगे रखे, हर चीज में अहम रखे, हर मसले पर उन्हें फ्रंट दे, कवर दे और पार्टी के भीतर से लेकर बाहर तक यही संदेश दे कि अगले मुख्यमंत्री अरुण साव ही हैं तो भी पार्टी साहुओं को जोड़े रख सकती है। लेकिन रिस्क इसमें भी है। तो इस रिस्क को खत्म करने के लिए उन्हें चुनाव मैदान में उतारना होगा।
निष्कर्ष यह है…
निष्कर्ष यही है कि साहू मतदाता निर्णायक हैं। बाकियों की इंजीनियिरंग ठीक से हो जाए तो यह मतादाता अरुण साव के ऐलान के साथ ही भाजपा के साथ खड़ा दिखेगा। भाजपा ने 2019 में यह किया था। उसने महासमुंद और बिलासपुर से 2 साहुओं को टिकट दिया था। रही कसर तो मोदी ने कोरबा की सभा में अपनी जाति साहू बताकर साहुओं को और अपने साथ पुख्ता तौर पर कर लिया था। नतीजे में हारी जैसी सीट कोरबा से भी भाजपा ने खूब टक्कर दे दी। इसलिए भाजपा साहू वोटर्स को लेकर कॉन्फिडेंट है। जब भी इस समाज के मतादाताओं को भाजपा ने आगे किया है, पार्टी को लाभ मिला है। लोकसभा में 2 साहू उतारे एक महासमुंद से चुन्नीलाल साहू दूसरे बिलासपुर से अरुण साव, दोनों ही जीते और जिन 66 विधानसभा सीटों पर भाजपा लोकसभा में आगे रही उनमें वे भी शामिल हैं जहां से साहू प्रत्याशी हार गए थे और वे भी शामिल हैं जहां भाजपा की बड़े अंतराल से हार हुई थी।