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शाहजहांपुर की जुटमार होली जानिए इस पुरानी परंपरा के पीछे का इतिहास

जुटमर होली: होली (Holi) का त्योहार है लेकिन देश के अलग-अलग हिस्सों में लोग इसे मनाने का अपना तरीका इजाद करते हैं। रंग-पिचकारी से खेली जाने वाली होली लाठी-डंडों और कीचड़ से लेकर जूतों तक मनाई जाती है। हालांकि जिस तरह से भी इस त्योहार के उल्लास पर कोई असर नहीं पड़ता बल्कि उससे आनंद मिलता है। जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़े राज्य संयुक्त रूप से अलग-अलग तरह से होली मनाई जाती है। ऐसी ही खास होली शाहजहांपुर (शाहजहांपुर) में मनाई जाती है जिसकी चर्चा पूरे देश में होती है।

शाह जहांपुर में 18वीं सदी में नवाब का जुलूस निकालकर होली मनाने की प्रथा शुरू हुई लेकिन 1947 के बाद इस मार्च का रूप बदल गया और यहां की होली ‘जूता मार होली’ में बदल गई। शाह जहांपुर के लोगों को हालांकि इसका खास तौर पर इंतजार रहता है। इस दिन ‘लाट साहब’ का कनेक्शन कनेक्शन है जिसमें भारी भीड़ उमड़ती है। स्थानीय पुलिस-प्रशासन को सुरक्षा के लिए विशेष अधिकार देने का प्रयास करते हैं क्योंकि इस दौरान उन्हें माहौल बिगड़ने की आशंका रहती है।

जब भैंसा गाड़ी पर सवार होते हैं तो लाट साहब
होली के दिन बफ़ेलो गाड़ी पर लाट साहब का प्रदर्शन होता है। इलाइट शुरू करने से पहले लाट साहब को हेलमेट पहनाया जाता है। उनके सेवक बने दो होरियारे झाड़ू से हवा करते हैं और लाट साहब पर जूते बरसाते हैं। इस दौरान लाट साहब जूतों की माला भी पहने रहते हैं। इस प्रसारण को शाह जहांपुर की कई गलियों से निकाला जाता है। सबसे पहले यह जूलूस कोतवाली पहुंच है जहां कोटवाल लाट साहब को प्रदान करते हैं। लाट साहब के सिर पर जहां जूते-चप्पल बज जाते हैं वहीं कुछ जगहों पर फूल-मालाओं से भी स्वागत किया जाता है।

क्या है परंपरा और कैसे बदला इसका स्वरूप
यूपी के शाह जहांपुर शहर नवाब बहादुर खान ने बसाया था। सूचनाएं बताती हैं कि इस राजवंश के अंतिम शासक नवाब अब्दुल्ला खान परिवार के झंझट के कारण फर्रुखाबाद चले गए थे। वह हिंदू-मुस्लिम दोनों के बीच लोकप्रिय थे। 1729 में वह शाह जहांपुर लौटा। वक्त उनकी उम्र 21 साल थी। उनके लौटने के बाद जब पहली बार होली आई तो दोनों समुदाय के लोग उनसे मिलने के लिए महल के पास रुक गए। जब नवाब साहब बाहर आए तब जाकर उन लोगों ने होली खेली। उत्साहित लोगों ने नवाब को ऊँट पर बिठाकर शहर को चकरा दिया। इसके बाद से यह शाह जहांपुर की होली का हिस्सा बन गया। हालांकि यह खुशी लंबे समय तक बनी नहीं रहती। 1858 में बरेली के सैन्य शासक खान बहादुर खान के सैन्य कमांडर मरदान अली खान ने हिंदुओं पर हमला किया, जिसमें कई लोग मारे गए। शहर में सांप्रदायिकता फैल गई। हमले में अंग्रेजो की भूमिका अहम दी गई है। लोगों में अंग्रेजों को लेकर भारी क्रोध था इसलिए देश की आजादी के बाद लोगों ने नवाब साहब का नाम गंदगी ‘लाट साहब’ कर दिया और जाम घोड़े या कैमल की जगह बफ़ेलो गाड़ी पर निकाली जाने लगी और लाट साहब को जूते मारने की प्रथा शुरू हो गया। यह वास्तव में अंग्रेजों के प्रति प्रति व्यक्त करने का तरीका था।

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