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‘न्याय की तलाश में विधवा’ – वकील पर झूठी FIR कराने का आरोप, कोर्ट सख्त

UNITED NEWS OF ASIA. बिलासपुर।कोंडागांव की एक विधवा महिला ने अपने अधिवक्ता पर गंभीर आरोप लगाते हुए छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है। महिला ने आरोप लगाया है कि वकील ने पेशेवर कदाचार करते हुए न केवल उसे गुमराह किया, बल्कि शिकायत की आशंका से बचने के लिए उसके खिलाफ झूठी एफआईआर भी दर्ज करा दी। मामले की प्रारंभिक सुनवाई के बाद हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट में लंबित आपराधिक प्रकरण पर अंतरिम रोक लगाते हुए वकील व राज्य सरकार को नोटिस जारी कर चार सप्ताह में जवाब तलब किया है।

क्या है मामला
कोंडागांव की वंशिका अग्निहोत्री, जो कि एक विधवा हैं, ने अपने परिवार में पुरुष सदस्य न होने के कारण बीमा राशि प्राप्त करने हेतु उत्तराधिकार प्रमाण पत्र के लिए न्यायालय का रुख किया। इसके लिए उन्होंने एक स्थानीय वकील को नियुक्त किया, जिन्होंने भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 372 के तहत सिविल न्यायालय में आवेदन प्रस्तुत किया।

5 अक्टूबर 2023 को ट्रायल कोर्ट ने उनके पक्ष में आदेश पारित किया, जिसे वंशिका के रिश्तेदार बसंत अग्निहोत्री ने चुनौती दी। अपील को 23 सितंबर 2024 को जिला न्यायाधीश ने खारिज कर दिया।

पेशेवर आचरण पर उठे सवाल
अपील के दौरान वंशिका को पता चला कि उनके वकील ने कोर्ट फीस व अन्य मदों के नाम पर अनावश्यक वसूली की तथा मामले की निष्पक्ष पैरवी नहीं की। इसके पश्चात वंशिका ने अधिवक्ता को बदलने के साथ ही उनके खिलाफ बार काउंसिल में शिकायत की चेतावनी दी।

एफआईआर और गिरफ्तारी
वंशिका का आरोप है कि शिकायत की भनक लगते ही वकील ने कोंडागांव थाने में उनके और एक महिला मित्र के खिलाफ आईपीसी की धारा 294, 506, 500, 341 व 34 के तहत एफआईआर दर्ज करवा दी। इसके आधार पर पुलिस ने दोनों को गिरफ्तार किया, जिन्हें 28 मार्च 2024 को जमानत पर रिहा किया गया।

हाईकोर्ट से राहत की उम्मीद
एफआईआर को दुर्भावनापूर्ण बताते हुए वंशिका ने हाईकोर्ट में याचिका दायर कर उसे निरस्त करने व संबंधित वकील के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की मांग की है। कोर्ट ने मामले की गंभीरता को देखते हुए आपराधिक मामले पर रोक लगाते हुए संबंधित पक्षों से चार सप्ताह में जवाब मांगा है।

विशेष टिप्पणी
यह मामला केवल एक व्यक्तिगत विवाद नहीं बल्कि न्यायिक प्रक्रिया में पेशेवर आचरण और विधिक नैतिकता की परीक्षा भी है। उच्च न्यायालय का यह हस्तक्षेप ऐसे मामलों में न्यायिक संतुलन कायम करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है।

 


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