नमस्कार कैसे है आप ! उम्मीद है कि सकुशल होंगे और होना भी चाहिए क्योंकि चुनावी साल है और इस साल की तासीर अलग है इसलिए मेरे पाठकों से मेरा निवेदन ..सिर्फ अपने और अपने परिवार का ही सोचे और जो भला मानुष हो उसे ही वोट दें..अपनी समझ से ! आज की कड़ी थोड़ी लम्बी है लेकिन आपके भविष्य के लिए आपको समझना और हमें आपको समझाना जरूरी है …
आइए चलें अब विषय पर दिल्ली ने कभी चाहा होगा कि छत्तीसगढ़ प्रदेश बने इसके लिए यहां की माटी, अरण्य, नदियां और मनुष्य उसके आभारी हैं। लेिकन यहां की आवाज कभी दिल्ली दरबार में सुनी नहीं गई। सरकार कांग्रेस की हो या भाजपा की। छत्तीसगढ़ अपनी आवाज सुनाने के लिए अब तक बेताब है। जब यह प्रदेश बना तब बहुमत दिवंगत कांग्रेस नेता पंडित विद्याचरण शुक्ल के साथ था।
पूरा प्रदेश और तत्कालीन कांग्रेस विधायक बेसब्री से वीसी के मुख्यमंत्री बनाए जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे, लेकिन कतरब्योंत, कोहनीबाजी और कांग्रेसी कॉकस के चलते अजीत जोगी मुख्यमंत्री बना दिए गए। फिर भाजपा में नेता प्रतिपक्ष की बारी आई। यहां भी बहुमत बृजमोहन अग्रवाल के पक्ष में था लेकिन नंदकुमार साय को बना दिया गया। इसी तरह जोगी की विदाई के बाद भाजपा विधायक भी और प्रदेश भी दिवंगत दिलीप सिंह जुदेव को मुख्यमंत्री देखना चाह रहे थे, लेकिन बना दिया गया रमन सिंह को।
ठीक ऐसा ही बर्ताव कांग्रेस ने फिर किया। नेता प्रतिपक्ष की बात आई। कांग्रेस परास्त हो गई थी। विधायक अजीत जोगी के साथ लामबंद थे और चाहते थे कि जोगी ही नेता प्रतिपक्ष बनें, लेकिन दिल्ली में महेन्द्र कर्मा को नेता प्रतिपक्ष बना दिया। इस बार के विधानसभा चुनाव से निकले नतीजों में टी. एस. सिंहदेव के पास अधिक विधायकों का समर्थन था लेकिन दिल्ली में भूपेश बघेल को बागडोर दे दी।
इसमें एक बात है कि इसकी वजह भूपेश बघेल का पार्टी के लिए िकया गया पराक्रम रहा होगा। इसके बाद भाजपा ने नेता प्रतिपक्ष चुनने की कवायद की। यहां 13 िवधायक बृजमोहन अग्रवाल के पक्ष में थे। उन्होंने पर्यवेक्षकों के समक्ष अपनी पारंपरिक चुप्पी भी तोड़ी और कहा िक उन्हें और कोई मंजूर नहीं है। िफर भी धरमलाल कौशिक को नेता प्रतिपक्ष बना िदया गया।
उनके पास न बहुमत न पराक्रम। भूपेश के पास बहुमत न भी था तो पराक्रम था। अर्थात कौशिक के पास कुछ था तो उसे दिल्ली के चाहत कह सकते हैं। पता नहीं दिल्ली की चाहत छत्तीसगढ़ की जमीनी हकीकत के खिलाफ क्यों रहती हैं। छत्तीसगढ़ तो अपने पुरुषार्थ और आस्था के साथ दिल्ली के साथ खड़ा रहता है। भाजपा कांग्रेस से दस फीसदी वाटों से पिछड़ रही है।
उम्मीद भी कोई कैसे करे कि संभलने की गंुजाइश दिखाई दे रही है। बहुमत या पराक्रम में से सिर्फ कुछ तो होना चाहिए। यदि इनमे से कुछ नहीं है तो सिर्फ गाल बजाने या ताली बजाने से कुछ नहीं होगा। मध्य प्रदेश में पंचायत चुनाव को दलीय आधार पर कराए जाने का फैसला सुंदरलाल पटवा ने किया था।
इससे वे तमाम लोग जो पंच और सरपंच होने की अपेक्षा रखते थे और जिन्हें कांग्रेस ने हाशिये पर डाल दिया था, वे सभी गांव-गांव से पटवा जी से जुड़ गए और इस तरह संगठन गांव-गांव तक पहुंच गया। यह और बात है कि हाईकोर्ट के निर्देश पर चुनाव रुक गया, फिर भी, पार्टी को ऐसे कार्यकर्ताओं की जमात मिल गई, जिनकी समाज में पहचान थी।
इनकी ही वजह से करीब दशक तक पार्टी चौपाल दर चौपाल अपने मुद्दे उठाती रही लेकिन 2003 के बाद छत्तीसगढ़ की राजनीतिक कार्य संस्कृति बिल्कुल ऐसी नहीं रही। 90 में क्षितिज पर दिख रहे लोगों को गांवों तक जाकर सक्षम कार्यकर्ताओं की टीम बनानी चाहिए थी जो सरकार, संगठन और इसकी संस्कृति को जीवनशैली का हिस्सा बना देती
लेकिन ऐसा नहीं हो पाया, और सत्तारोही लोगों ने सत्ता अवलंबन की ओर उन्मुख कार्यकर्ता यानी दलाल बना दिए। सभी जगह अघोषित संदेश गया कि पार्टी की प्रणाली बदल रही है। अब पराक्रम नहीं परिक्रमा अनिवार्य है, वैचारिक नहीं आर्थिक संसाधनों की जरूरत है, अब संगठनात्मक कार्य में प्रवीण को नहीं प्रबंधन में दक्ष को वरीयता दी जाएगी।
वक्ता के स्थान पर प्रवक्ताओं की पूछ बढ़ी और विचारकों को खिसकाकर प्रचारक जगह बनाने में छत्तीसगढ़ में तो कामयाब रहे। प्रचारकों की इस मंडली के कारनामों से पहला और सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि आज 25-40 बरस की पीढ़ी एकात्म मानव दर्शन को जानती तक नहीं। वे यह मानने लग गए कि दर्शन गैर जरूरी है सिर्फ प्रदर्शन लक्ष्य तक पहुंचने के लिए जरूरी है।
तो क्या हम बौनों के अभ्युदय केदौर में पहुंच रहे हैं? भारतीय जनता पार्टी अपने वैचारिक घनत्व, सांगठिनक ढांचे के लिए जानी जाती रही है। इसके साथ पर्याप्त विश्वास रखने वाले लोगों की उपस्थिति थी। उस उपस्थिति में एक जज्बा था। विचार की और चिंता की बात यह है कि वे सारे लोग या वह तरुणाई जो विचार-आलोक में चल रही थी आज ‘सीनियर-सिटीजन’ हो चुकी है या होने के करीब है।
आने वाले समय में संघर्ष अनिवार्य होगा तो संघर्ष दर्शन के आधार पर कार्यकर्ताओं के अभाव में कैसा होगा? क्या यह सच नहीं कि सरकार, संगठन और बहुत हद तक संघ भी संस्थाओं को रोप नहीं पाए। ऐसे में पार्टी के विचारों को जन-जन तक पहुंचाने का दायित्व कौन और कैसे उठा पाएगा? भाजपा के अनेक उद्देश्यों में एक उद्देश्य यह भी था कि वरिष्ठों का आचरण अनुसरण करने जैसा होना चाहिए।
यह भी नहीं हो सका। केवल इतना हुआ कि ‘कमल’ का निशान देश के सुदूर अंचल तक पहुंच गया, लेकिन यह निशान इस दौर में सक्षम वैचारिक और संगठनात्मक कार्यकर्ताओं तक कब और कैसे पहुंचेगा। अभिप्राय यह कि अब तक सरकार रहने तक जो संदेश नई पीढ़ी पढ़ पायी वह था धन और प्रबंधन का संदेश। संघ और संगठन के संदेश से वह कोरी की कोरी रह गई।
जैसे संगीत में होते हैं ‘सा, रे, ग, म, प, ध, नि, सा, इसका एक आशय है कि सा से स्वर, रे से रियाज, ग से गंभीरता, म से मिजाज, प से प्रस्तुति, ध से धैर्य, नि से निरंतर, सा से समयबद्धता। इस सांगीतिक सूत्र के आधार भी देखें तो संगठन के सरकार में रहने तक इसके ज्यादातर सूत्र गुम नजर आएंगे। न उतना धैर्य दिखाई दिया, न प्रतिबद्धता की निरंतरता, न कहीं समयबद्धता।
जाति और क्षेत्र के आधार पर राष्ट्रीयता का संवाहक होने की होड़ ध्येयनिष्ठ लोगों को हास्यास्पद बना रही है। यदि जातिवादिता और क्षेत्रीयता ही हमारे विचारों का जरूरी समुच्चय है तो हमें क्षेत्रीय पार्टी ही कहा जाएगा। पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग की जिस तरह से व्याख्या हुई और चर्चा में रही उसका मतलब तो ‘सबका साथ-सबका विकास’ ही था, लेकिन इस दरमियां हुआ क्या कि पार्टी जाति आधारित अभियांत्रिकी की ओर बढ़ने लगी।
ऐसा या तो स्वार्थवश हुआ या इसे भयभीत होकर उठाया गया। कदम कहा जा सकता है। समझना यह जरूरी है छत्तीसगढ़ में कभी जातिवाद प्रभावी नहीं रहा। निश्िचत ही जातियां रही। ऐसा होता तो ताजा विधानसभा चुनाव में कवर्धा से मोहम्मद अकबर करीब 59 हजार वोटों से कैसे जीत जाते। कवर्धा मुस्िलम बहुल इलाका नहीं है।
इसी तरह राजिम विधानसभा क्षेत्र से पंडित श्यामाचरण शुक्ल के पुत्र अमितेष शुक्ल 58 हजार वोटों से जीते। राजिम भी ब्राह्मण बहुल विधानसभा क्षेत्र में नहीं है। इसका आश्ाय साफ है कि लोगों ने जाति को मत नहीं दिया। जनादेश दलगत था जातिगत नहीं। भाजपा में नेता प्रतिपक्ष के चुनाव में भी कुर्मी विरुद्ध कुर्मी करने की कोशिश हुई।
गणित का सीधा सा तर्क है िक यदि आप एक ही ट्रैक में दौड़ रहे हैं और पीछे हैं तो पीछे ही रहेंगे। आगे बढ़ने और जाने के सभी मार्ग दूसरे ट्रेक से जाते हैं। भूपेश बघेल की तुलना में कौशिक के कद को कहां रख सकते हैं? इनमें जो बड़ा कुर्मी नेता होगा लोग उसी के साथ रहेंगे। सिर्फ इसीिलए कोई इस पद के योग्य नहीं िक वह स्वर्ण है चाहे 7 बार विजयी रहा हो और प्रदेश के हर िजले में उसकी स्वीकार्यता हो।
याेग्यता और कर्मठता की दुहाई देते दशकों बीत गए लेिकन इस आधार पर फैसला कब होगा? दाम, उपनाम और अब चाम यदि पार्टी की राजनीितक नई आख्यायिका है तो काम को तो चौथे नंबर पर आना ही होगा। ऐसे में पराजय का विषाद भी दिखावा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में आरंभ से व्यक्ियों को प्रथम नाम से बुलाने की परंपरा रही है। वहां उपनाम से नहीं पुकारा जाता।
इसके पीछे सिर्फ इतनी बात थी कि आपको आपके कार्य और व्यक्ितत्व की हैसियत से पहचाना जाए न कि जाति के आधार पर। यह दुनिया का पहला संगठन है िजसने जाति प्रथा की रीढ़ पर हमला किया और उसी को मानने वाले आज जाितगत अरण्य में लालटेन लेकर विजय का खोया परचम खोज रहे हैं। आज जरूरत इस बात की है िक सोचें कि संप्रदायवाद, जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद के बढ़ते खतरे से कैसे निपटें और कैसे राष्ट्रीय विचारधारा को अहर्निश प्रज्जवलित रखा जाए।