
कुछ फिल्में अपनी ही गति से चलती हैं। ऐसा लगता है कि किसी को कहीं जाना नहीं है। कहीं पहुंचने की कोई जल्दी नहीं है। जैसे-जैसे जीवन धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे फिल्में भी चलती जा रही हैं। रफ्तार की तेज रफ्तार जिंदगी में छोटे गांवों और गांवों में बसी इन फिल्मों की कहानियां दिल को लगता है, लेकिन अगर कहानी एक पुलिस मामले की हो तो उसकी धीमी गति पानी के पैमाने के ठीक उलट हो सकती है। सीताराम बिनॉय केस नंबर 18 (सीताराम बिनॉय केस नंबर 18) एक अच्छी कहानी पर बनी फिल्म है, लेकिन ऐसा लगता है कि एक वेब सीरीज (वेब सीरीज) का निर्देशन कल्पना के साथ बैठकर कर रहे थे और फिल्म बननी पड़ी। फिल्म जरूरत से ज्यादा लंबी है।
एक पुलिसवाले के लिए उसके आन, बान, शान और मान को चुनौती देती है उसके घर में होने वाली चोरी। सिताराम बिनॉय की पोस्टिंग शिमोगा जिले के थाने में होती है। कुछ शातिर चोर उसी के घर को निशाना बनाते हैं। जांच में पता चलता है कि ऐसी कुछ और चोरियां भी बंद हो चुकी हैं। खोजियों की खोज में सिताराम और उनके साथी अलग-अलग तरीके अपनाते हैं, कुछ विशेष सफलता हाथ नहीं लगती। तहकीकात के दौरान सीताराम की पत्नी की हत्या हो जाती है और जांच का एक नया चिल शुरू हो जाता है। ऐसे में सितारराम के हाथ उभड़ते हैं केस नं। 18 की फाइल। वन सीरियल मर्डर की फाइल। चोरी के मामले के तहकीकात के बीच में सीरियल मर्डर्स के पीछे का सच जानने की ये कवायद, सीताराम को कहां ले जाता है, इस फिल्म का क्लाइमेक्स उसी बात पर टिका है।
लेखक, निर्देशित देवी प्रसाद शेट्टी की ये पहली फिल्म है और संदिग्ध इसलिए लेटर में कोई कंजूसी नहीं बरती गई है। नए लेखकों के साथ ये समस्या होती है कि फिल्म में वो हर घटना के पीछे के कारणों को स्पष्ट रूप से दिखाती हैं। हीरो, हीरोइन या विलन के किरदार की उपयोगिता साबित करने की कोशिश करते हैं और इसलिए ऑडियंस की बुद्धि के बजाय वो खुद ही सब कुछ बताना चाहते हैं। देवी प्रसाद शेट्टी भी इसी समस्या से जूझ रहे हैं। इसके बावजूद उन्होंने फिल्म बहुत अच्छी बनाई है।
अनुलेख निर्देशक कोई नयापन तो नहीं है। लेकिन एक खोज पर फिल्म में पुलिस वाले भी कितनी मेहनत करते हैं वो अच्छे से दिखाए गए हैं। कोई भी सबूत या क्लू, सीताराम (विजय राघवेंद्र) को अचानक नहीं मिलता और ना ही वो कोई सुपर कॉप हैं जो चुटकियों में केस हल कर देते हैं। शुरूआती दौर में तो मामले में उन्हें निराशा ही हाथ लगती है। फिल्म, कन्नड़ अभिनेता विजय की 50वीं फिल्म और पूरी फिल्म अभी भी बनी हुई है। प्रोड्यूसर सात्विक हेब्बार ने फिल्म में विलन की भूमिका निभाई है, लेकिन उन्होंने कैमरे को अपने ऊपर केंद्रित रखने का लोभ संवरण किया है।
गगन बड़ेरिया का संगीत अच्छा है, फिल्म में कुछ अटैचमेंट की गुंजाईश रखी गई थी, जो निहायत ही गैर जरूरी थी। हालांकि गाने अच्छे और मधुर हैं। सिनेमेटोग्राफर हेमंत की भी ये पहली फिल्म है और उन्होंने अच्छा काम किया है। शीर्ष शॉट्स और छायांकन का सही उपयोग देख सकते हैं। क्योंकि यह सटीक सामान्य जीवन जीते हैं इसलिए उनकी स्थिति प्रकाश में लिए गए हैं। पहचान शशांक नारायण की भी पहली फिल्म है। सैक्स डायरेक्टर का इम्पैक्ट ज्यादा होता है इसलिए कई बेकार सीन वो नहीं हटते जिस वजह से फिल्म करीब 20 मिनट ज्यादा खिंच जाती है। देवीप्रसाद के निर्देशन में दो प्लॉट्स की सवारी करने का इरादा काफी हद तक फिल्म को संभाले रखता है लेकिन एक नई कहानी की एंट्री के बाद फिल्म स्लाइड हो जाती है।
यदि सिर्फ चोर-पुलिस के खेल की कहानी होती है तो फिल्म अधिक वीडियो होती है। शातिर चोर मंडली और एक अधिकारी पुलिस, लेकिन ऐसा नहीं है। फिल्म अच्छी है। लम्बा है। गंभीरता की आवश्यकता है। समय अधिक हो तो ही देखेंगे। या फिर आप धीमी गति से चलती फिल्में देखने के शौकीन हों तो जरूर देखें। सिताराम बिनॉय केस नं। 18 में गलतियां कम नजर आती हैं।
विस्तृत रेटिंग
कहानी | : | |
स्क्रिनप्ल | : | |
डायरेक्शन | : | |
संगीत | : |
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प्रथम प्रकाशित : 02 अक्टूबर, 2021, 14:53 IST
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