समाज में पुरुषों को एक दाता के तौर पर देखा जाता है, जिससे आशा की जाती है कि वो परिवार का भरण पोषण करेगा। लेकिन कभी-कभी उनसे यह उम्मीद नहीं की जाती कि उन्हें भी किसी चीज को लेकर समस्या या तनाव हो सकता है। उन्हें सिर्फ मुश्किलों को हल करने के लिए समझा दिया जाता है, बिना यह सोचे कि वे भी किसी स्थिति को ट्वीट या ट्वीट महसूस कर सकते हैं।
सुपरमैन, हीमैन और दुनिया भर की परिस्थितियों को चुटकियों में हल करने वाली इस सोशल कंडिशनिंग ने खुद को पुरुषों को भी अपने से बेखबर बना दिया है। अपराधी तब होते हैं, जब स्थिति खराब से बदतर हो जाती है। इसी स्थिति से जून को पुरुष मानसिक स्वास्थ्य जागरुकता माह (पुरुषों का मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता माह) के रूप में समर्पित किया गया है। चलो पुरुषों के मानसिक स्वास्थ्य के आसपास के लोगों को तोड़ने की कोशिश करते हैं।
ये डायलॉग्स लड़कों को चलने की उम्र से ही रटवा दिया जाता है कि “मर्द को कभी दर्द नहीं होता”। जिसके कारण वे आयु भर अपनी भावनाओं को दबाते-छुपाते रहते हैं।
यादों के लिए अलग है समाज की अवधारणा
शादियों से तो ये भी दीपमालाएं उन्हें कोई चोट नहीं पहुंचाएगी, तो वे उस पर बात करें। एंजाइटी और डिप्रेशन तो काफी बड़ी और न समझ में आने वाली चीजें बन जाती हैं।
ऐसी कई बातें हैं मेल का हिस्सा बन गई हैं। जैसे “लड़कियों की तरह रोना बंद करो”, “गड्ढे कर आ गए बल नहीं है क्या”, “घर के काम कर रहा है, लड़की है क्या?”, “लड़कियों की तरह मुंह बना रहा है।”
ये संयोजन एक ऐसा पुरुष तैयार करने की ओर स्थित होता है, जो जुड़ते हुए कड़े और चुलबुले लगते हैं। जिसका खामियाजा परिवार और संबंधों में होने वाले तनाव के रूप में भी सामने आता है।
डाॅ आशुतोष श्रीवास्तव वरिष्ठ चिकित्सीय मनो वैज्ञानिक हैं। पुरुषों के मानसिक स्वास्थ्य और सोशल मीडिया के बारे में बात करते हुए डॉ. आशुतोष श्रीवास्तव कहते हैं, “सामाजिक दबाव वास्तव में पुरुषों को उनकी चिंता और अवसाद पर फ्रैंक चर्चा करने से रोकने में भूमिका निभा रहे हैं।”
समझें कि कैसे सोशल लेबल पुरुषों के मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहे हैं
1 लैंगिक मानदंड और रूढ़िवादिता
डॉ. आशुतोष श्रीवास्तव बताते हैं कि समाज में लिंग को लेकर एक मानदंड तय किया गया है जिसमें कुछ चीजें पुरुषों के समान व्यवहार उनकी मर्दाना शक्तियों पर उंगली उठाना समझा जाता है। एक अनिवार्यता के लिए समाज जो रवैया रखता है, उनमें से वो अक्सर अधिकार, स्वतंत्रता और कम गुण जैसे गुण देते हैं।
माना जाता है कि पुरुषों का रवैया हमेशा सख्त और रूखा होना चाहिए। मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के लिए उन पर कमजोर लेबल लगाने से मदद मिलती है। इस डर के कारण एकसर पुरुष अपनी बातों को फ्रैंक नहीं रखता।
2 हीमैन और सुपरमैन फ़िशिंग
भारत ही नहीं यूरोपीय देशों में भी पुरुषों की छवि सॉल्वर और सेवियर की समस्या है। जहां दूसरे उनका बचाव करते हैं, दूसरों की मदद के लिए तैयार रहते हैं और अपनी चोटों को नजरंदाज करते हैं। उन्हें भावनाओं को जानने के लिए तैयार किया जाता है। जो पुरुष अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए संघर्ष के बारे में खुलकर बात कर सकते हैं। सामाजिक मानदंडों को लेकर इस पर विचार किया जा सकता है कि पुरुषों को अपनी स्थिति को आंतरिक रूप से संभालना चाहिए और दूसरों पर अपने मुद्दों का बोझ नहीं डालना चाहिए।
3 नकारात्मक टिप्पणियाँ और मजाक का डर
पुरुषों को ये डर भी होता है कि अगर वो अपनी एंग्जाइटी और डिप्रेशन के बारे में किसी से भी बात करगें तो उनके साथी, दोस्तों, या यहां तक कि कि परिवार के सदस्यों द्वारा जज किया जा सकता है और मजाक उड़ाया जाएगा। उन्हें ये भी डर रहता है कि इस बारे में बात करने से उनका व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन प्रभावित हो सकता है।
सामाजिक रूप से यह डर पुरुषों को प्रभावित या अपने मानसिक स्वास्थ्य के बारे में फ्रैंक बात करने से रोक सकता है।
4 जागरूकता और रोल मॉडल की कमी
डॉ. आशुतोष श्रीवास्तव ने बताया कि मीडिया और फिल्मों को लेकर बात कम होना और हीरों को हमेशा एक बॉडी बिल्डर के तौर पर पेश करना भी पुरुषों में कहीं न कहीं डर की भावना पैदा करता है। अपने मानसिक स्वास्थ्य पर चर्चा करने वाले पुरुषों का सीमित प्रतिनिधित्व इस विश्वास को बनाए रख सकते हैं कि पुरुषों की अपनी भावनाओं को उनकी तक ही रखनी चाहिए। ऐसे पुरुषों की कमी होना जो फ्रैंक अपने मानसिक स्वास्थ्य के बारे में साझा करते हैं पुरुषों के लिए और कठोर बन सकते हैं।
5 सपोर्ट करने वालों की कमी
मानसिक स्वास्थ्य संसाधन और सहायता प्रणालियाँ हमेशा विशेष रूप से पुरुषों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए डिज़ाइन नहीं की जाती हैं। इसका परिणाम स्वरूप समर्थन की कमी पुरुषों के लिए आवश्यक सहायता प्राप्त करना अधिक कठिन बना सकता है और इस विचार को लेकर योजना मुख्य रूप से महिलाओं के लिए मानसिक स्वास्थ्य पर चर्चा कर सकती है।
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