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दिमाग को बचाना आपका काम है इस ‘हेलमेट’ से – News18 हिंदी

सामाजिक सटायर समाज के विशिष्‍टता पर आधारित व्यंगात्मक, सबसे आसान लगता है और सबसे कठिन होता है। वजह है सोशल सटायर को समझने वाली नजरिया। ज़ी 5 की रिलीज़ फ़िल्म ‘हेलमेट’ कहने के लिए एक विपरीत है, कॉन्डम खरीदने के साथ जुड़े हुए मानसिक ब्लॉक पर, मगर इस बात को समझने के लिए दो घंटे की फ़िल्म और विश्वास न करने वाली स्क्रिप्ट बनायीं सोच ये समझ नहीं आया। सड़क के किनारे बेचने वाला हेलमेट वाला हेलमेट नहीं होता, इस फिल्म में आपको सही मायने में हंसी आती है इस बात की कोई इजाजत नहीं है।

भारत में कंडोम खरीदना एक राष्ट्रीय समस्या है। आम आदमी कई बार कोशिश करता है कि वो मेडिकल स्टोर से इसे और लघुलेख की ही तरह खरीद ले। ये समस्या की जड़ है. इसे दवाई की तरह पेयर किया जाता है। किसी रोग की गोपनीयता की दवाई की तरह और इसलिए इसे लेने वाले को रोगी गुप्त रोगी मान कर उसका मानसिक बहिर्वाह कर दिया जाता है। कॉन्डम का प्रभाव, उसका दायरा और उसे लेने को लेकर जो सामाजिक बंधन हैं, उसे दूर करने के लिए सरकार कई दशकों से करोड़ों रुपये खर्च कर रही है। लेकिन पारिवारिक शिक्षा के इस साधन को ऐय्याशी से जोड़ कर देखा जाता है। फिल्म शौचालय की शुरुआत तो इसी बात पर फोकस करती है और फिर फिल्म में हीरो, हीरोइन, डांस, गाना, लड़की का खडूस पिता, लड़के के दोस्त आदि देखते हैं।

उत्तर प्रदेश के शहरों में बसी कई विचित्र कहानियों में आयुष्मान खुराना ने नई उलझनों का समाधान किया है। स्पर्म डोनर बनते हैं, अपने ही पुरुष मित्र से प्यार करते हैं नौजवान या फिर बालों की गिरती सफलता से त्रस्त रीति. उनके छोटे भाई अपारशक्ति खुराना ने इस बार कोशिश ही की परपाटी को आगे बढ़ाने का किया है। अनाथ लकी (अपारशक्ति) ऑर्केस्ट्रा में कुमार सानू स्टाइल में गाने गाता है, बाकि समय में शहर के बड़े रईस जोगी जी (आशीष विद्यार्थी) की खूबसूरत बेटी रूपाली (प्रनूतन बहल) के साथ प्रेम-गीत गाने के लिए कॉन्डम खरीद नहीं पाते हैं। किस्मत की मार ऐसे बच जाती है कि लकी, उसकी पालक दोस्त सुल्तान (अभिषेक बनर्जी) और सुनने वाला दोस्त माइनस (कमल का काम करते हुए आशीष वर्मा), तियो को संपत्ति के लिए एक ट्रक लूटना है। ट्रक में मोबाइल की उम्मीद होती है, लेकिन कंडोम से बौने डब्बे मिलते हैं जैसे कि ऐसे से बेचकर पैसे कमाने की मजेदार यात्रा, ये पूरे समाज में एक हीरो बना रहता है।

फिल्म की मूल कहानी गोपाल मुधाणे ने लिखी है। संभव है कि हाल के वर्षों में रिलीज होने वाले सोशल मीडिया का ट्विटर अकाउंट देखकर लिखा हो, मगर कहानी की आत्मा व्यावहारिक है। कॉन्डम खरीद न पाने का रास्ता पुराना नहीं है, लेकिन उसे एक फिल्म की कहानी की शक्ल देना ज़रा मुश्किल काम है। लुका छुपी, मिमी और सन पर मंगल भारी फिल्मों के लेखक रोहन शंकर ने इसकी स्क्रिप्ट और डायलॉग लिखे हैं। यहां मामला अच्छा नहीं था. स्क्रिप्ट्री यानी स्क्रीन प्ले में सब कुछ ऐसा लग रहा था कि फिल्म की निगरानी रखने की योजना से लिखा गया था। इमोशंस एट अल लगाने से पहले ही सीन बदल गया था। चोरी की घटना अति-नाटकीयता का शिकार थी। फिल्म की मूल आत्मा “कनफ्लिक्ट” होती है यानी वो बात या वो सवाल जिसे हल करना ही फिल्म का उद्देश्य होता है। कॉन्डम सेल की प्रक्रिया में ज़बरदस्त कॉमिक बनाने का स्कोप था वो बड़ी ही आसानी से मॉनिटर किया गया। गरीब ग्यारहवीं का लड़का और पढ़ा लिखा अमीर लड़की के बीच की दीवार, यानी लड़की का पिता एक ही दृश्य में रंग बदल कर हाज़िर हो जाता है, वो खटका। क्लाइमेक्स में भी ड्रामा की कमी रह गई।

अपारदर्शी से बड़ी उम्मीदें हैं। अभी तक सहनायक की भूमिका करते आ रहे हैं और उन सभी में उनका बड़ा प्रभाव था। इस फिल्म में एक सीधे लड़के की भूमिका में उनका निर्देशन काम नहीं कर पाया। एक अच्छी प्रतिभा के लिए निर्देशन को ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। अभिषेक बनर्जी तो प्रतिभावान हैं हीं, उन्होंने रंग भी खूब जमाया है। सबसे अच्छी भूमिका में हैं आशीष वर्मा। उन्होंने सुनने वाले की भूमिका में एक नए पैसे की ओवर एक्टिंग नहीं की है। प्रनूतन का काम भी ठीक है हालांकि चरित्र को सही तरीके से लिखें तो शायद और अच्छे काम कर सकते हैं। छात्र और अन्य चरित्रों की भूमिका बहुत कम है। निर्देशक सतराम रमानी की ये पहली निर्देशित फिल्म है। इसके पहले वो सहायक निर्देशन के तौर पर काम करते थे। रॉ का काम है। फिल्म में इमोशंस पर कम ध्यान दिया गया है। कोई भी दृश्य अपने उच्चतम पर सबसे पहले ही बदला जाता है। छोटे शहरों के लोगों के कॉन्डम लेने वालों में काफी मस्ती की गुंजाइश थी, वो नजर नहीं आई। राष्ट्रीय एड्स जागरूकता कार्यक्रम के मुखिया के तौर पर रोहित ने अच्छा काम किया है। वो सहज ही चले जाते हैं, उन्हें थोड़ा स्क्रीन टाइम देना चाहिए था। छोटे रोल्स में वो नजर आ रहे हैं लेकिन इस फिल्म में उनका सीन आता है और होता है तो शायद मर्जी का मज़ा कुछ और होता है।

संगीत अप्रभावी है। इस तरह की फिल्मों में अच्छे गाने प्रोमोशन के लिए बहुत काम आते हैं और खासकर जब हीरो, ऑर्केस्ट्रा का लीड सिंगर है तो उसे सुपरहिट गाने मिलना चाहिए। जुड़ाव की वजह से फिल्म को और खुशी हो सकती थी लेकिन मिल नहीं पाई। लुका रीड और मिमि के साथ मनीष मुख्य ने स्केच में बदलाव किया है और छोटी फिल्म बनाने का प्रेशर दिखाई देता है। शौचालय एक अच्छी कहानी है, अच्छा कॉन्सेप्ट है लेकिन फिल्म बदनसीब लगती है क्योंकि इसमें दर्शकों को बहुत सी चीजों को देखने के तरीके के लिए कहा गया है, इमोशंस अपनी वाजिब ऊंचाई पर नहीं पहुंच पाते हैं और चरित्र भी पूरी तरह से आकर्षित नहीं होते हैं हैं। थोड़ा वयस्क विषय है लेकिन फिल्म तीतर सुथरी है। शुभ मंगल ज्यादा सावधान में थोड़ा डिजिटल हो सकता है लेकिन हेलमेट में वो समस्या नहीं है। देख सकते हैं।

विस्तृत रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

टैग: छवि समीक्षा, हेलमेट

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Saurabh Namdev

| PR Creative & Writer | Ex. Technical Consultant Govt of CG | Influencer | Web developer
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