
UNITED NEWS OF ASIA. प्रदीप पाठक, कोरिया । “नर सेवा ही नारायण सेवा है” — इस वाक्य को जीवन दर्शन मानने वाले साहित्यकार एवं जनहित संघ अंतर्गत पंडो विकास समिति के केंद्रीय उपाध्यक्ष संवर्त कुमार ‘रूप’ का मानना है कि यदि मनुष्य के भीतर मानवीय संवेदना और मनुष्यता का आचरण नहीं है, तो उसका जीवन व्यर्थ है। वर्तमान सामाजिक परिप्रेक्ष्य में संवेदनाएं लुप्त होती जा रही हैं, जिसके परिणामस्वरूप मानवता का पतन और अपराध का विस्तार हो रहा है।
संवेदना ही मानवता का मूल है
‘रूप’ का कहना है कि —
“दूसरों की पीड़ा को महसूस करना, उनके दुख-दर्द में सहभागी बनना, सहानुभूति रखना और अपने व्यवहार में करुणा का समावेश करना – यही मानवीय संवेदना के मूल तत्व हैं। यदि समाज में यह लुप्त हो जाए, तो हम पशुता की ओर अग्रसर हो रहे हैं।”
वे मानते हैं कि समाज में बढ़ती ईर्ष्या, जलन, संवेदना की कमी, तथा परस्पर सहयोग की भावना का ह्रास हमें आत्म-केन्द्रित और स्वार्थी बना रहा है। यही कारण है कि हत्या, बलात्कार, डकैती और क्रूरता जैसे अपराधों का ग्राफ निरंतर बढ़ रहा है।
प्रकृति, चेतना और कर्तव्यबोध का संतुलन
‘रूप’ ने अपने उद्बोधन में उल्लेख किया कि प्रकृति स्वयं स्त्री स्वरूपा है, जिसके तीन गुण – सत्व, रज और तम — से मनुष्य का स्वभाव संचालित होता है। मनुष्य को ईश्वर ने अन्य प्राणियों की अपेक्षा बुद्धि, विवेक और सामर्थ्य दिया है। बावजूद इसके, वह आत्म तत्व की पहचान करने की बजाय भौतिक संग्रहण और स्वार्थ में लिप्त हो गया है।
मानव और जीवों के बीच रिश्ते पर गहरा विमर्श
उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि आज गौ माता जैसी पूजनीय जीव को भी समाज नजरअंदाज कर रहा है। उन्होंने वरिष्ठ साहित्यकार गिरीश पंकज द्वारा लिखे गए उपन्यास “एक गाय की आत्मकथा” का हवाला देते हुए बताया कि कैसे एक मुस्लिम युवक मुहम्मद फैज खान ने उस रचना से प्रेरित होकर गौ सेवा के लिए अपनी सरकारी नौकरी तक छोड़ दी।
‘रूप’ कहते हैं—
“गौ माता की जय बोल देने भर से कुछ नहीं होगा। स्वार्थ और दिखावे से की गई श्रद्धा फलदायी नहीं होती। जब भारी बारिश में एक गाय रोड किनारे पड़ी रही और लोग बस देखते गुजरते रहे, यह घटना मानवता के पतन की पराकाष्ठा थी।”
ईश्वर भक्ति का वास्तविक अर्थ – ‘जीव सेवा’
‘रूप’ मानते हैं कि सच्ची ईश्वर भक्ति वही है जिसमें शोषित, पीड़ित और ज़रूरतमंदों की सेवा हो। समाज का कल्याण, सहयोग और संवेदना से ही संभव है। वे कहते हैं –
“अगर मनुष्य जन्म लिया है तो सिर्फ अपने लिए जीना क्या मानवता है? परहित सरिस धर्म नहीं भाई – इस भावना से कार्य करना ही मानव धर्म है।”
संवेदनाओं के क्षरण पर गंभीर चिंता
अपने लेखन के अंत में उन्होंने स्पष्ट किया कि आज की सबसे बड़ी आवश्यकता संवेदनशीलता का पुनरुत्थान है। क्योंकि मानव के पास तीन इकाइयों – पदार्थ, प्राण और ज्ञान – पर नियंत्रण है। यह अधिकार उसे मिला है ताकि वह इनका संयमित और कल्याणकारी प्रयोग करे। परंतु जब वही मानव स्वयं निष्ठुर और स्वार्थी बन जाए, तो समाज, प्रकृति और सृष्टि – तीनों पर खतरा मंडराने लगता है।
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