भारत भाग्य विधाता

भारत भाग्य विधाता : नींद से जगाकर प्रधानमंत्री बनाए गए गुजराल:संजय गांधी से बोले- तमीज से बात करें, आपका नहीं आपकी मां का मंत्री हूं

1997 की बात है। कांग्रेस ने एचडी देवगौड़ा सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकियां शुरू कर दी थीं। तब क्षेत्रीय पार्टियों का गठबंधन संयुक्त मोर्चा धर्म संकट में पड़ गया। सालभर के भीतर दूसरी बार प्रधानमंत्री के नाम की जद्दोजहद शुरू हुई थी। तमाम रायशुमारी के बाद इंद्र कुमार गुजराल के नाम पर सहमति बनी।

इस फैसले से बेखबर गुजराल घर पर थे। गठबंधन के नेता उनके घर पहुंचे। पता चला कि साहब सो रहे हैं।

घर वालों की इजाजत से उनके कमरे में कुछ बड़े नेता गए। गुजराल को नींद से जगाकर कहा- उठिए, आपको भारत का प्रधानमंत्री बनना है।

“भारत भाग्य विधाता” सीरीज के 12वें एपिसोड में आईके गुजराल के प्रधानमंत्री बनने की कहानी और उनसे जुड़े किस्से…

13 दिन वाजपेयी, 10 महीने देवगौड़ा, अगला PM कौन?
1996 में केंद्र में गठबंधन सरकार का दौर था। लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी 161 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी। अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बन गए। 13 दिन के बाद ही वाजपेयी की सरकार गिर गई।

1 जून, 1996 को जनता दल के एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने। इनका किस्सा पिछले एपिसोड में बता चुके हैं। देवगौड़ा को कांग्रेस का समर्थन मिला था, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के 10 महीने बाद ही कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई। इसके बाद प्रधानमंत्री के लिए कई नामों पर चर्चा शुरू हो गई।

दावेदार कई थे। मसलन- सीताराम केसरी, मुलायम सिंह यादव, जीके मूपनार, लालू प्रसाद यादव… लेकिन किसी एक नाम पर सहमति नहीं बन पा रही थी।

रशीद किदवई अपनी किताब भारत के प्रधानमंत्री में लिखते हैं कि इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री के रूप में आकस्मिक तौर पर मिले।

दरअसल, गुजराल की हर किसी से बनती थी। हर पार्टी में उनकी यारी-दोस्ती थी। ज्यादातर लोगों को ऐसा लग रहा था कि यही एक ऐसा नाम है जिस पर कोई भी पार्टी एक बार विचार जरूर करेगी। हालांकि, मुलायम इस नाम के खिलाफ थे। उन्हें ज्योति बसु ने समझाया तो वो राजी हुए। उधर सीताराम केसरी भी गुजराल को अपना दोस्त मानते थे इसलिए वो उस वक्त चुप रहे।

इस तरह 21 अप्रैल 1997 को गुजराल ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। वो इस पद पर 19 मार्च 1998 तक रहे।

21 अप्रैल 1997 को तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने गुजराल को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई।

गुजराल मानते थे- पड़ोसियों से रिश्ते सुधारकर ही दुनिया में दबदबा बनेगा
आईके गुजराल ने भारतीय विदेश नीति को कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांत दिए। इसे ‘गुजराल डॉक्ट्रिन’ नाम दिया गया। विदेश मंत्री रहते हुए 1996 में भारत को व्यापक परमाणु परीक्षण निषेध संधि यानी CTBT पर साइन नहीं करने दिया। यही वजह है कि आज भारत खुद को परमाणु शक्ति घोषित करने में कामयाब हो पाया।

गुजराल का एक सिद्धांत यह कहता है कि यदि किसी देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना दबदबा बनाना है तो उसे अपने पड़ोसी देशों के साथ सामान्य रिश्ते बनाने होंगे।

गुजराल का जन्म पाकिस्तान में हुआ था। वो बंटवारे का दर्द जानते थे और पड़ोसी देशों को दुश्मन नहीं समझते थे।

वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई के मुताबिक, ‘पहले विदेश मंत्री, फिर प्रधानमंत्री के तौर पर गुजराल चाहते थे कि भारत अपने पड़ोसी देशों जैसे मालदीव, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और भूटान के साथ भरोसा डेवलप करे। उनके साथ जो भी विवाद हैं, उन्हें बातचीत से सुलझाए। अगर पड़ोसी देश की मदद की है तो तुंरत उससे कुछ लेने की उम्मीद न करे।’

इस विचारधारा से जुड़ा एक किस्सा पत्रकार सैकत दत्ता भी बताते हैं। ‘गुजराल नए-नए प्रधानमंत्री बने थे। उन्होंने रिसर्च एंड एनालिसिस विंग यानी रॉ के चुनिंदा वरिष्ठ अधिकारियों को अपने ऑफिस में बुलाया। उन्हें निर्देश दिया कि पाकिस्तान में अपनी गतिविधियां बंद कर दें। माना जाता है कि इसके बाद से ही पाकिस्तान में काम करने को लेकर रॉ के पास कोई स्पष्ट आदेश नहीं है।’

गुजराल का इंटरव्यू लेते के पी नायर का सीन।

पाकिस्तान के प्रति गुजराल के नर्म व्यवहार पर कई बार लोगों ने सवाल किया। एक बार गुजराल ‘द टेलीग्राफ’ अखबार को इंटरव्यू दे रहे थे। पत्रकार के पी नायर ने उनसे कहा- भारतीय कूटनीति के बारे में एक धारणा यह भी है कि पाकिस्तान को लेकर नर्म रुख अपनाया जा रहा है। आप रुख नर्म रखकर पाकिस्तान के साथ काम नहीं कर सकते।

इतना सुनते ही गुजराल भड़क गए। गुस्से में उन्होंने कहा- क्या आपको लगता है कि मैं पाकिस्तान को कुछ दे दूंगा। मैं भी उतना ही राष्ट्रभक्त हूं, जितना कोई दूसरा हो सकता है।’

सीताराम केसरी के PM बनने के ख्वाब ने गुजराल सरकार गिराई
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपनी किताब ‘द कोलिजन ईयर्स 1996-2012’ में लिखा, ‘सीताराम केसरी उस समय प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब बुनने लगे थे। अस्थिर और अल्पमत सरकारों के दौर में उन्हें लगता था कि शायद वो अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी कर सकते हैं।’

सीताराम केसरी एक बहाने के इंतजार में थे, तभी राजीव गांधी की हत्या से जुड़ी जैन कमीशन की अंतरिम रिपोर्ट सामने आ गई।

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सीताराम केसरी ने 1997 में गुजराल सरकार से DMK को कैबिनेट से बाहर करने को कहा। गुजराल नहीं माने तो कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया।

प्रणब मुखर्जी लिखते हैं, ‘जैन आयोग की अंतरिम रिपोर्ट में इस बात का जिक्र था कि DMK और इसके नेता लिट्टे प्रमुख प्रभाकरन को बढ़ावा दे रहे थे। हालांकि, राजीव गांधी की हत्या में DMK के किसी नेता या पार्टी का नाम सीधे तौर पर नहीं जुड़ा था। उस वक्त गुजराल की संयुक्त मोर्चा की सरकार में DMK भी शामिल थी, जबकि कांग्रेस बाहर से समर्थन दे रही थी।’

ऐसे में गुजराल ने वरिष्ठ नेताओं से चर्चा के लिए एक डिनर आयोजित किया। प्रणब मुखर्जी लिखते हैं, ‘तब गुजराल ने कहा कि ऐसे वक्त में अगर DMK पर कार्रवाई की गई तो इसका गलत संदेश जाएगा। वो नहीं चाहते थे कि सरकार की विश्वसनीयता पर आंच आए।’

दूसरी तरफ कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलाई गई। अधिकतर सदस्य नहीं चाहते थे कि गुजराल सरकार से समर्थन वापस लिया जाए। प्रणब लिखते हैं, ‘उस समय सीताराम केसरी कांग्रेस में मजबूत स्थिति में थे। केसरी ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए समर्थन वापसी का प्रस्ताव पारित करा लिया। इस तरह 28 नवम्बर 1997 को इंद्र कुमार गुजराल की सरकार गिर गई।

संजय गांधी से बोले- आपकी मां का मंत्री हूं, आपका नहीं
इंदिरा गांधी की सरकार थी। देश में इमरजेंसी लगाई गई थी। इंदिरा के छोटे बेटे संजय गांधी पर इमरजेंसी के दौरान ज्यादतियां करने के आरोप लगे थे। इस बात की जांच के लिए शाह कमीशन बनाया गया था। इसी कमीशन के बारे में जग्गा कपूर ने एक किताब लिखी है, ‘व्हाट प्राइस परजरी- फैक्ट्स ऑफ द शाह कमीशन।’

इस किताब में आई के गुजराल और संजय गांधी से जुड़ा एक किस्सा है। उस समय गुजराल कांग्रेस की सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे। उन्हें संजय गांधी ने आदेश दिया – आकाशवाणी में पढ़ी जाने वाली खबरों को सेंसर किया जाए। प्रसारण से पहले आकाशवाणी के सारे समाचार बुलेटिन मुझे दिखाए जाएं।

गुजराल ने उनकी बात सुनी और फिर आराम से कहा- सूचना और प्रसारण मंत्री मैं हूं। क्या सही, क्या गलत मैं देख लूंगा।

इस जवाब के बाद दोनों के बीच बहस होने लगी। इंदिरा गांधी वहां मौजूद थीं। उन्होंने अपने बेटे को चुप कराया। गुजराल वहां से चले गए।

इस घटना के कुछ ही दिन बाद गुजराल को प्रधानमंत्री आवास से फोन आता है। फोन पर दूसरी तरफ मौजूद व्यक्ति कहता है- मैडम आपसे मिलना चाहती हैं। गुजराल इंदिरा से मिलने पहुंचते हैं।

संजय गांधी और गुजराल की मुलाकात का सीन।

पत्रकार वीर सांघवी को दिए इंटरव्यू में गुजराल ने बताया था, ‘मुझे प्राइम मिनिस्टर हाउस से फोन आया कि मैं PM से मिलने आऊं। मैं साढ़े 10 या 11 बजे के करीब वहां पहुंचा। तब तक प्रधानमंत्री अपने दफ्तर के लिए निकल चुकी थीं।

मैं जब बाहर आने लगा तभी संजय गांधी आ गए। उस दिन उनका मूड बहुत खराब था, क्योंकि आकाशवाणी के एक चैनल ने इंदिरा गांधी की स्पीच का प्रसारण नहीं किया था।’

संजय ने झल्लाते हुए कहा, ‘देखिए, ऐसा नहीं चलेगा।’

गुजराल ने जवाब दिया, ‘देखिए, जब तक मैं हूं, ऐसा ही चलेगा।’

संजय गांधी चिल्लाने लगे। इस पर गुजराल ने कहा- आपको बात करनी है तो थोड़ा सलीका सीखिए। आपको यह तक नहीं पता कि बड़ों से कैसे बात की जाती है। मेरी आपके प्रति कोई जवाबदेही नहीं है। मैं आपकी मां का मंत्री हूं, आपका नहीं।’

इसके बाद ही गुजराल के हाथों से सूचना और प्रसारण मंत्रालय छीन लिया गया।

इंदिरा कहती रहीं, गुजराल ने नहीं दी अपनी घड़ी
1976 की बात है। उस समय आई के गुजराल मॉस्को में भारत के ऐंबैस्डर यानी राजनयिक थे। सोवियत संघ के दौरे पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पहुंचीं। उनके स्वागत में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया।

इंदिरा के साथ गुजराल भी वहां मौजूद थे। उनके हाथ में हमेशा HMT की घड़ी होती थी। उस समय HMT की घड़ी अमीर और रुतबे वाले लोग ही पहनते थे। सोवियत संघ प्रमुख ब्रेजनेव को गुजराल की घड़ी बहुत पसंद आई। उन्होंने उनसे उस घड़ी से जुड़े ढेरों सवाल कार्यक्रम में बैठे-बैठे दुभाषिए के माध्यम से पूछ डाले।

इंदिरा दुभाषिए की बातें सुन रही थीं। उन्होंने गुजराल से हिंदी में कहा- ‘अपनी घड़ी उतारकर इन्हें दे दो न।’

गुजराल ने ऐसा नहीं किया। इंदिरा दोबारा बोलीं- देते क्यों नहीं। दे दो घड़ी।

उन्होंने इंदिरा और दुभाषिए के माध्यम से ब्रेजनेव से कहा- कूटनीतिक शिष्टाचार से मैं इस समय बंधा हुआ हूं। चाहकर भी अपनी घड़ी खोलकर आपको गिफ्ट नहीं कर सकता। इतना वादा जरूर करता हूं कि ऐसी एक घड़ी आपको भिजवा दूंगा।’

बाद में उन्होंने अपना वादा पूरा भी किया और ब्रेजनेव को उस तरह की कई घड़ियां भिजवाईं।

इस किस्से का जिक्र गुजराल ने वर्षों बाद पत्रकार वीर सांघवी को दिए एक इंटरव्यू में किया था। सांघवी ने अपनी किताब ‘मैंडेट: विल ऑफ द पीपल’ में गुजराल के हवाले से पूरा किस्सा बयां किया।

सद्दाम हुसैन ने गुजराल को गले लगा लिया
गुजराल की आत्मकथा ‘मैटर्स ऑफ डिस्क्रेशन’ में लिखा है, ‘मैं उन दिनों विदेश मंत्री हुआ करता था। इराक और कुवैत के बीच रिश्ते अच्छे नहीं थे। मैं जब सद्दाम हुसैन से मिला तो वो खाकी वर्दी में थे। उनकी कमर पर पिस्टल लटक रही थी। मुझे देखते ही उन्होंने मुझे गले लगा लिया।

फोटोग्राफर्स वहां मौजूद थे। हम दोनों के मुलाकात की तस्वीर देश-दुनिया के अखबारों में छप गई। इससे हमारी स्थिति खराब हो गई। इससे दुनियाभर में यह संदेश गया कि जिस सद्दाम हुसैन की पूरी दुनिया में निंदा हो रही थी, उसको भारत के विदेश मंत्री गले लगा रहे थे।’

1990 में गल्फ वॉर के दौरान सद्दाम हुसैन से गुजराल ने मुलाकात कर कुवैत में फंसे एक लाख 70 हजार इंडियन्स को सुरक्षित निकाला। इंडियन एयरलांइस ने 60 दिन तक 500 फ्लाइट्स से दुनिया का सबसे बड़ा एयर रेस्क्यू किया था।

खाड़ी देश के संयुक्त सचिव और राजदूत रहे केपी फेबियन ने ‘फॉरेन अफेयर्स जर्नल’ को दिए इंटरव्यू में यह कहकर गुजराल का बचाव किया कि अगर किसी देश का राष्ट्राध्यक्ष आपको गले लगाना चाहे तो आप ‘डक’ तो नहीं कर सकते। यानी आप इससे मना नहीं कर सकते।

खैर, इस मुलाकात का इतना फायदा जरूर हुआ कि गुजराल ने कुवैत में फंसे 1 लाख 70 हजार भारतीयों को विमान से सुरक्षित देश वापस लाने में सफलता पाई। अपनी तरह का ये दुनिया का सबसे बड़ा ऑपरेशन माना जाता है। एक बार में इतने सारे लोगों को एक जगह से दूसरी जगह लाने का यह विश्व रिकॉर्ड गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज किया गया।

 


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