लेटेस्ट न्यूज़

Bye Bye 2022: हो जाते हैं सालों के बंधन लगभग बीते के पेट… | – हिन्दी में समाचार

गुजरा हुआ सागरा फिर वापस नहीं आता… स्वर सम्राज्ञी लता मंगेशकर की आवाज में फिल्म शीरीं फरहाद (1956) का यह गीत, किसी जामने में बीते दिनों को याद करने का एक एक्टिंग इंस्ट्रूमेंट करता था। फिर वैश्वीकरण के दौर में पॉप की थरकन के साथ पुराना मच्छर और गिटार… जैसे गानों ने मोहल्ले की छत और कॉलेज कैंटीन की याद में आने वाली यादों तक बम का काम किया। आज सोशल मीडिया के दौर में वही काम जोखिम का अनुमान होता जा रहा है, जो साइन एप्लिकेंट सिल्वर स्क्रीन की सौ-पचास साल की यात्रा पर ले जाते हैं, जिसे देखना, शेयर करना और शेयर करना एक भाव बन रहा है।

दरअसल, यादगार अनमोल हैं। डेटासेटर रखें तो दस्तावेज़ और खड़िया बन जाते हैं। दिल से लगें तो दोस्त और दिलबर बन सकते हैं। अतीत, इतिहास, यादें, किस्सों-कहानियों और अफ़सानों के इस सिम-सिम के दर्शक और दिग्दर्शक, दोनों को टटोलते-खंगालते रहना चाहिए। एक सी अलग ताजी मिलती है।

हर साल दिसंबर के आखिरी पांच-दस दिनों में सालभर की महत्वपूर्ण घटनाओं का पुनरावलोकन, अटेन्शन, विचार-मिर्मश, मंथन, एक रिवायट की तरह मीडिया में ब्लिट्ज से चला आ रहा है, लेकिन सिनेमा से संबंधित स्लॉट प्लॉट, एक समान तरीके से पुनरावलोकन की अवधि को कई गुना बढ़ा दिया जाता है, जिससे रोमनों का आयोग होता है। एक सामान्य दर्शक खुद को टाइम स्टोरर के रूप में पाता है, जब वह देखता है कि सौ साल पहले किसी भारतीय बैनर के लिए नल दमयंती, ध्रुव चरित्र, रत्नावली और सावित्री सत्यवान धार्मिक जैसी, भक्तिमय और पौराणिक फिल्में इटली और फ्रांस से निर्देशित बनीं रह रहे थे। और जड़ चक्कर देखते हैं कि सौ साल पहले यानी 1922-23 के समय में अंग्रेजों के हुकूमत के दौर में कितनी मुश्किल से फिल्में बन पाएंगी। तब फिल्म बनने से जुड़ी चीजें और अनुभव का भी घोर अभाव होगा। हां, शायद कमी नहीं थी तो सिर्फ जज्बे और प्रयोगधर्मिता की.

यादें का रोमांच

सीक्वेंस ड्रामा या नया ड्रामा, के रूप में अतीत या उससे जुड़ी यादों को एक नए अंदाज में प्रस्तुत किया जा रहा है। ताजा उदाहरण निर्माता- रोहित शेट्टी की इस साल क्रिसमस पर रिलीज होने वाली फिल्म सर्कस है, जिसमें 60 के दशक के दौर की यादों को लोटपोट करने वाले अंदाज में संजोया गया है। आइए देखते हैं कि रोहित शेट्टी 60 साल बाद 60 के दशक की यादों का सफर किस रूप में कर रहे हैं।

जोर इस पर है कि अब से साठ साल पहले हमारी जिंदगी जैसी थी। समाज कैसा था, घर-परिवार, यारी-दोस्ती वगैरह-वगैरह सब कैसा होता था। जब मोबाइल नहीं था और टेलीविजन भी बहुत से घरों में होता था, तो मनोरंजन की क्या अहमियत होती थी। खबरों की दुनिया जैसी थी। हम सब जानते हैं कि रोहित शेट्टी किस प्रकार से मनोरंजक फिल्में बनाते हैं। इस बार उनका दृश्य अतीत के रोमांच का वर्तमान में उल्लेख कर रहा है, जिसके लिए उन्होंने सदियों से हंसी-ठिठोली के अचूक बाण माने जाने वाले विलियम शेक्सपियर की ड्रामा कॉमेडी एरर्स से अपना तरकश तैयार किया है।

दरअसल, कहने को छह दशक पहले की बात है, लेकिन तब और आज की बातों में बहुत अंतर है। आज बेशक हमारे पास हर समय, हर जगह मनोरंजन पाने के लिए बेशुमार साधन हैं, लेकिन आप हैरान हो सकते हैं कि टेलीविजन पर दैनिक प्रसारण की शुरुआत सन् 1965 में हुई थी। तब जनसंख्या 43 करोड़ से अधिक थी, लेकिन देश में टेलीफोन की संख्या 10 लाख से भी कम रही होगी। सन् 1960 में भारत में एसटीडी सेवा शुरू हुई। इससे पहले कॉलर की मदद से ट्रंक बुक करकर दूर-दराज की बात की गई थी।

टेलीफोन की बात चली है तो नीचे महसूद की आवाज में एस. डी. बर्मन द्वारा संगीतबद्ध, फिल्म सुजाता (1959) का एक गीत ‘जलते हैं जिसके लिए…’, याद आ रहा है, जिसे अभिनेता सुनील दत्त और अभिनेत्री नूतन ने गाया है। करीब सावा चार मिनट के इस गाने में टेलीफोन पर नायक (सुनी दत्तल) अपने रूमानी अंदाज में दूसरी ओर रिसिवर थामे गमगीन के करीब (नूतन) को अपने दिल का हाल बयां कर रहा है। इससे और दस साल पहले फिल्म काइटा (1949) का गीत ‘मेरे पियाले रंग गए वहां से टेलीफोन आता है…’ याद आता है, जिसके केंद्र में फोन है। देख सकते हैं उस दौर में किस तरह से फिल्मों के जरिए फोन के जरिए लोगों को पानी पिलाया जा सकेगा।

ढीले के पैमानों पर बिमल रॉय ने सुजाता का अपना एक मुकाम किया है, जो सन् 1960 में कान फिल्म समारोह में पहुंची थी। इसी साल एक तरफ के। आसिफ निर्देशित ऐतिहासिक फिल्म मुगल-ए-आजम रिलीज हुई तो दूसरी ओर आजादी के बाद कर्तव्य भारत और शौक का करती फिल्म हम हिंदुस्तानी भी आए।

भारतीय सिनेमा अपने स्वर्ण युग (1940 से 1960) के अंतिम दौर में था। ऑफ बीट सिनेमा को बचाने और प्रोत्साहन के लिए तब फिल्म हासिल निगम (एफएफसी) की स्थापना की गई, ताकि फिल्म निर्माताओं को वित्तीय सहायता दी जा सके। हालांकि इससे महज एक दशक पहले यानी 1950 की बात थी तो भारतीय सिनेमा, दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी फिल्म इंडस्ट्री के रूप में गिनी जाने लगी थी, जिसका ब्लूप्रिंट ग्रॉस आय 250 मिलियन डॉलर (सन् 1953 में) थी।

चल रहे थ्रॉकबैक का फाइल सत्तर से सौ साल से देखते हैं। शायद एडवेंचर्स का स्तर और वृद्धि। यानी अगर हम 1922-23 या उस दशक में हालात पर नजर डालें तो देख सकते हैं कि ब्रिटिश गैर-मौजूद भारत में मूक फिल्मों का दौर कैसे ले जा रहा था। फिल्मों पर इंटरटेनमेंट टैक्स, पहली बार सन् 1922 में (बंगाल) ही डाला गया था, फिर सन् 1923 में बंबी में शुरू हुआ।

इस दशक में कई और चीजें काफी खास रही हैं। जैसे कि सेंसर बोर्ड का गठन और कोहिनूर फिल्म कंपनी कृत एवं कांजीभाई राठौड़ ने भक्त विदुर पर प्रतिबंध लगाना शुरू किया, जो पहली बार और बैन फिल्म कहा जाता है। लेखक रॉय अर्मस ने अपनी दूसरी वर्ल्ड फिल्म मेकिंग एंड दी वेस्ट में उल्लेख किया है कि अब तक फिल्म निर्माण और सिनेमा की संख्या लगभग दोहरी होने लगी थी और हम इस क्षेत्र में ब्रिटेन को पीछे छोड़ रहे थे। और फिर एक दशक के अंत में जब वॉल स्ट्रीट पर दहाड़ा तो हॉलीवुड के कई स्टूडियो भारत की नवोदित फिल्म इंडस्ट्री में चमकदार भविष्य की तलाश में आने लगे।

घटना से नाता

आप अक्सर बड़े पत्थरों को कहते हैं कि सुना होगा कि जब कुछ भी ठीक नहीं चल रहा हो, तो ज्यादा हाथ-पैर मारने से अच्छा है मिहिर के लिए शांत बैठ जाना चाहिए। उन पुराने दिनों को संघर्ष करते हुए याद करना चाहिए जब चीजें धीरे-धीरे आकार ले रही थीं। खुद का नहीं तो अपने बड़ों का गौरवशाली इतिहास बहुत कुछ सिखाया जाता है। 56 वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार सहित कई अन्य देसी-विदेशी फिल्म की झलक से सम्मानित, परेश मोकाशी निर्देशित मराठी फिल्म हरिश्चंद्राची मेक (2009) में दिखाया गया है कि किस तरह से दादा साहेब फाल्के को पहली भारतीय फिल्म किंग हरिश्चंद्र (1913) के निर्माण में बनाई गई है प्रोजेक्टर और दुश्वारियों का सामना करना पड़ा।

परेश मोकाशी का करियर थिएटर से बैकस्टेज कलाकार के रूप में शुरू हुआ। फिर एक लेखक और निर्देशक के रूप में इस दुनिया में परिमार्जन करने के बाद उन्होंने अपनी पहली फिल्म हरिश्चंद्राची फिल्म, बनानी शुरू की तो उनके सामने भी कई चीजें आईं। थिएटर की तुलना में फिल्म का निर्माण उनके लिए बिल्कुल नया था। निर्माता को ढूंढने और पैसों के जुगाड़ में ही तीन साल लग गए। बार-बार यह सुनने के बाद कि मराठी फिल्म के रोजे में जलपान, बिग स्टार लो और गीत-संगीत में भी शामिल हैं, मोकाशी ने खुद से फिल्म बनाने का फैसला किया और कहा कि इसके लिए उन्हें अपना अपना घर तक गिरवी रखना पड़ा।

तुलना न भी करें तो पहली नजर में ऐसा ही लगता है कि उनकी पहली फिल्म बनाने में फाल्के और मोकाशी के सामने एक तरह की परेशानी थी। स्वतंत्र फिल्म भागीदारों की भारतीय फिल्मों की समृद्धि में अविश्वसनीय योगदान है। स्टूडियो संस्कृति के आने से पहले और बाद में भी ऐसे कई उदाहरण हैं, जब ऐसी फिल्मों ने हव्वा के रुख के उलट अपनी बातों को रखा है। ऐसे में जब कई वाजिब और गैर वाजिब कारणों से हिंदी फिल्म उद्योग की आर्थिक स्थिति पहले जैसी नहीं है और अपनी सामग्री एवं प्रस्तुति सहित अन्य कई बातों को लेकर अक्सर आलोचना होती है, फिल्म बिरादरी के होनहारों को भारतीय सिनेमा के इतिहास पर इत्मीनान से शॉकबैक अंदाज में नजर डालनी चाहिए।

जॉबर से उन फ़िल्मों की सारी सैचुएंट्स को वास्तव में अस्वाभाविक गौरवशाली और सफलतम फिल्मों की सिल्वर-गोल्डन जुबली से भर दिया गया है। यह समझे सौ या सत्तर साल पहले न तो आज जैसी सहूलियतें थे और न ही सफलता के पैमाने, उनके पुरखों नें कैसे अपने पांव जमाए होंगे। बिना किसी प्रशिक्षण और अनुभव के लगभग सभी ने जीरो से शुरुआत की थी। उस दौर में हमारा फिल्म उद्योग चलता-फिरता सीख रहा था, तो पहला विश्व युद्ध, स्पैनिश फ्लू, ग्लोबल माइनर और उसी समय दूसरा विश्व युद्ध हुआ, जिसके कई चश्मे पर व्यापक प्रभाव पड़ा। पर हौले-हौले ही सही हमारी फिल्मकार आगे बढ़ते रहे।

पहली मैग्नेटिक फिल्म से पहली बोली फिल्म आलमआरा (1931) तक आने में बेशक 18 साल लग गए, लेकिन तब तक हम चर्चा में आने लगे थे। किसी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भारत की ओर से जाने वाली पहली फिल्म मराठी भाषा में बनी संत तुकाराम (1936) थी। यह पहली ऐसी फिल्म बनी जो एक साल तक एक ही सिनेमा हाल में लगातार चली। अचानक से चारों ओर बहुत तेजी से बदल रहा था. नाच-गाने वाली संगीतमय फिल्में बनने लगीं, पहली रंगीन फिल्म किसान कन्या (1937) बनी। यहां तक ​​​​कि फिल्मों की पहुंच के लिए पहली फिल्म वर्ल्ड मोहिनी (1940) में बनी। और यहां से आने वाले दो दशक तक भारतीय सिनेमा ने अपने सबसे अच्छे दौर को इतिहासकारों द्वारा फिल्मों के स्वर्ण युग के नाम से पुकारते हैं, को दिल से जिया।

दरअसल, आज यहां अतीत की यादों को ताजा करने से सिर्फ इतना है कि सौ सालों से अधिक का जो हमारा फिल्मी इतिहास है, वो इतना समृद्ध, संघर्ष और रचनात्मकता से भरा है कि हमें बुरा दौर से देखने के लिए कहीं और देखने की शायद ही जरूरी हो। देखते हैं कि कैसे हमारे कई साथी और वरिष्ठ पत्रकार बंधु समय-समय पर पुराने दौर की दिग्गज फिल्म के लिए भटकते रहते हैं और अनसुने किस्सों से रूबरू रहते हैं। पिछले दिनों इसी ब्लॉग सेक्शन में शैलेन्द्र को उनकी 56वीं धारा को याद किया गया। सत्यजीत रे की कालजयी फिल्म पाथेर पांचाली को ब्रिटिश मैगज़ीन साइट एंड साउंड 2022 ऑल टाइम ग्रेट फिल्मों की लिस्ट में शामिल होने वाली है और इस फिल्म से जुड़ी यादें इसमें शामिल हैं। भारतीय सिनेमा और अमिताभ बच्चन के संबंध में फिल्मकार ऋषिकेश मुखर्जी के साथ उनके जन्मशती वर्ष के उपलक्ष्य में याद किया गया। लेख की शुरुआत में थ्रोबैक से आशय यही है कि हमें केवल पीछे की ओर ही नहीं थोड़ा रुककर भी देखना चाहिए।

कुछ दिन पहले कोलकाता में अपने करीब तीस मिनट से अधिक के बंधे में बच्चन साहब ने लगभग बाइस मिनट तक सिर्फ और सिर्फ भारतीय सिनेमा के 110 साल के इतिहास को बेहद कसे हुए अंदाज में समेटा। उन्होंने सन् 1895 में पेरिस में पहली बार सार्वजनिक तौर पर दिखाई दी फिल्म का उल्लेख भी किया और बताया कि कैसे हमारी फिल्म इंडस्ट्री इन ब्लिस्टरिंग सौ में विपरीत स्थितियों के बावजूद अपने विचार को याद रखने में सफल रही है।

Show More

Saurabh Namdev

| PR Creative & Writer | Ex. Technical Consultant Govt of CG | Influencer | Web developer
Back to top button

You cannot copy content of this page