नवंबर 1990 में वीपी सिंह की सरकार गिर चुकी थी। अब दो ही रास्ते थे- पहला- फौरन चुनाव करा लिए जाएं, दूसरा- जोड़-तोड़ के जरिए सरकार बने।
चंद्रशेखर अपनी आत्मकथा ‘जिंदगी का कारवां’ में लिखते हैं, ‘राजीव के करीबी आरके धवन एक दिन अचानक मेरे पास आए। कहा कि राजीव गांधी आप से मिलना चाहते हैं। मुझे कुछ समझ नहीं आया इसके बावजूद मैं उनके साथ गया।
राजीव गांधी ने मुझे देखते ही पूछा कि क्या आप सरकार बनाएंगे। मैंने जवाब दिया कि सरकार बनाने का मेरा कोई नैतिक आधार नहीं। मेरे पास पर्याप्त संख्या भी नहीं। राजीव गांधी ने पलटकर कहा कि आप सरकार बनाइए। हम आपको बाहर से समर्थन देंगे।
चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री बनने के बाद राजीव गांधी से पत्रकारों ने पूछा- इस सरकार को आप कितने दिन तक चलाएंगे? राजीव गांधी का जवाब था- वीपी सिंह की सरकार से एक महीने ज्यादा।
‘भारत भाग्य विधाता’ the political chair सीरीज के आठवें एपिसोड में चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री बनने की कहानी और उनसे जुड़े रोचक किस्से…
लालू ने आडवाणी की रथयात्रा रुकवाई, इधर वीपी सरकार गिर गई
कुछ महीने पीछे चलते हैं। जनता दल के विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री थे। उन्हें BJP और वाम दलों का समर्थन था। 7 अगस्त 1990 को वीपी सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने का ऐलान कर दिया। इनमें पिछड़े वर्ग के लिए 27% आरक्षण की व्यवस्था की गई थी।
मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने की घोषणा के साथ वीपी सिंह ने कहा था, ‘हमने मंडल रूपी बच्चे को मां के पेट से बाहर निकाल दिया है। अब कोई माई का लाल इसे मां के पेट में वापस नहीं डाल सकता। यह बच्चा अब प्रोग्रेस करेगा।’
मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद देशभर के सवर्ण छात्रों ने इसके खिलाफ जबरदस्त प्रदर्शन किया। देश की राजनीति में भूचाल आ गया। BJP अब इस सरकार में भागीदार नहीं रहना चाहती थी। हालांकि, फौरन सरकार गिराने से जनता में गलत संदेश जाता।
मंडल की राजनीति के खिलाफ BJP ने कमंडल की राजनीति शुरू की। लालकृष्ण आडवाणी ने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मुद्दे पर रथयात्रा निकालने का फैसला किया। वीपी सिंह के कहने पर बिहार में जनता दल के मुख्यमंत्री लालू यादव ने आडवाणी को गिरफ्तार करवा दिया। BJP को बहाना मिल गया। उसने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और वीपी सिंह को इस्तीफा देना पड़ा।
कांग्रेस विरोध में जीते, उन्हीं के समर्थन से PM बने चंद्रशेखर
वीपी सरकार गिरने के बाद चंद्रशेखर 64 सांसदों के साथ जनता दल से अलग हो गए। उन्होंने समाजवादी जनता पार्टी बनाई। जिस कांग्रेस का विरोध करके जनता दल सत्ता में आई थी, उसी के समर्थन से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बन गए।
इसके बाद राजनीतिक गलियारे में सवाल उठे कि चंद्रशेखर कांग्रेस के समर्थन से सरकार कैसे बना सकते हैं?
रामबहादुर राय अपनी किताब में लिखते हैं, ‘मंडल के विरोध में देशभर में लोग आत्मदाह कर रहे थे। इस माहौल में चंद्रशेखर ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने को जायज ठहराते हुए ये तर्क किया कि मैं देश में अमन चैन लाना चाहता हूं। समय का जो तकाजा है उसके लिए सरकार बना रहा हूं।’
महज तीन महीने बीते थे कि कांग्रेस ने चंद्रशेखर सरकार से समर्थन वापस ले लिया। अल्पमत में आने के बाद चंद्रशेखर को 6 मार्च 1991 को इस्तीफा देना पड़ा। फिर अगले प्रधानमंत्री चुने जाने तक यानी 21 जून 1991 तक उन्होंने कार्यवाहक प्रधानमंत्री के तौर पर ये पद संभाला।
वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय को दिए इंटरव्यू में चंद्रशेखर कहते हैं, ‘जिस दिन मैं प्रधानमंत्री बना, उस दिन 70-75 जगहों पर कर्फ्यू लगा था। मंडल आयोग की सिफारिश के खिलाफ भड़के युवा आत्मदाह कर रहे थे। सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे। दूसरी ओर मुझे सरकार चलाने का कोई अनुभव नहीं था। मन में यह बात थी कि सरकार ज्यादा दिन तक चल नहीं पाएगी। इसके बावजूद मेरा विश्वास था कि कोई न कोई रास्ता निकल आएगा। ऐसा हुआ नहीं और मुझे इस्तीफा देना पड़ा।’
जब PM चंद्रशेखर ने नवाज से कहा- जाओ कश्मीर दिया
प्रधानमंत्री बनने के बाद भी चंद्रशेखर के बोलचाल और पहनावे में कोई बदलाव नहीं आया था। देश-विदेश में भी वो अपनी खांटी जुबान में बोलते थे। पत्रकार संतोष भारतीय अपनी किताब ‘वीपी सिंह, चंद्रशेखर, सोनिया गांधी और मैं’ एक ऐसे ही रोचक किस्से का जिक्र करते हैं।
‘प्रधानमंत्री बनते ही चंद्रशेखर कॉमनवेल्थ सम्मेलन में भाग लेने मालदीव की राजधानी माले पहुंचे। वहां पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ भी मौजूद थे। एक मौके पर अचानक दोनों नेताओं की मुलाकात हुई। चंद्रशेखर ने उनके कंधे पर हाथ रखकर कहा- आप बहुत बदमाशी करते हैं।
नवाज ने जवाब दिया- आप मेरी बदमाशी की वजह ही दूर कर दीजिए। चंद्रशेखर ने पूछा- आप कारण बताओ, मैं अभी दूर कर दूंगा। नवाज शरीफ बोले- आप हमें कश्मीर दे दें, बदमाशी दूर हो जाएगी।
चंद्रशेखर ने कुछ सेकेंड नवाज शरीफ को देखा और फिर बोले- जाओ कश्मीर दिया। नवाज शरीफ फौरन बोले- चलिए एक कमरे में बैठकर बात करते हैं। कागजी काम करवाते हैं। चंद्रशेखर कहने लगे- इसकी अभी क्या जरूरत। बस ये याद रखें कि हम कश्मीर के साथ आपको अपने देश के 15 करोड़ मुसलमान भी दे देते हैं। आपको उन्हें भी अपने साथ लेना होगा।
नवाज शरीफ चौंक गए- पूछने लगे कि इस बात का मतलब क्या है?
तब चंद्रशेखर ने कहा- आप मुसलमान आबादी के आधार पर हमसे कश्मीर ले लेंगे। भारत के गांव-गांव में मुसलमान रहते हैं। आपके कश्मीर के लेते ही देश में यह मांग उठने लगेगी कि इन मुसलमानों को भी यहां से निकालो। इसके लिए हर जगह दंगे होंगे, मेरे पास इतनी सेना या पुलिस नहीं की इस सिचुएशन को कंट्रोल कर पाऊं। ऐसे में अगर आप 15 करोड़ भारतीय मुसलमानों के साथ कश्मीर को लेने को तैयार है तो मैं अभी इसकी घोषणा कर देता हूं।
चंद्रशेखर का जवाब सुनकर नवाज शरीफ चुप हो गए। हालांकि, इस मुलाकात के बाद दोनों देशों के PM ऑफिस के बीच हॉट लाइन सर्विस शुरू हुई थी। जिसके जरिए दोनों PM सीधे बात कर सकते थे।’
चंद्रशेखर के प्रधान सचिव रहे एसके मिश्रा ने एक इंटरव्यू में बताया था कि इस घटना के बाद नवाज शरीफ चंद्रशेखर को भाई साहब कहने लगे थे।
खजाना खाली था, कर्ज के लिए अमेरिका को ठिकाना देना पड़ा
1989 से 1991 का साल भारतीय राजनीति के लिए उठा-पटक वाला रहा। पहले कांग्रेस की सरकार गई, फिर वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने और उनके बाद चंद्रशेखर। इस बीच मंडल कमीशन का मुद्दा, राममंदिर आंदोलन, प्रदर्शन, दंगे चल रहे थे। अर्थव्यवस्था बेहद मुश्किल दौर में थी।
इसी दौरान खाड़ी युद्ध शुरू हो गया। चूंकि भारतीय अर्थव्यवस्था तेल पर निर्भर थी और तेल के दाम आसमान छूने लगे। भारत को तेल आयात करने के लिए पहले से दोगुना पैसा खर्च करना पड़ रहा था। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खाली हो गया था। सिर्फ 2 हफ्ते के आयात का पैसा बचा था।
रशीद किदवई अपनी किताब ‘भारत के प्रधानमंत्री’ में लिखते हैं, खाड़ी युद्ध में अमेरिका कूद पड़ा था। इराक अमेरिका का दुश्मन था, लेकिन भारत से अच्छे संबंध थे। भारत को इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड यानी IMF से कर्ज की दरकार थी। समस्या यह थी कि IMF में दो तिहाई से ज्यादा वोट अमेरिका के थे, ऐसे में भारत को कर्ज मिलना मुश्किल था।
उस वक्त के विदेश मंत्री सुब्रमण्यम स्वामी ने अमेरिका से बात की। अमेरिका ने शर्त रखी कि जब उनका जहाज इराक पर हमला करेगा तो उसकी लैंडिग के लिए बेस और रिफ्यूलिंग की जगह भारत उसे दे। इसके बदले वो भारत को कर्ज दिलाएगा। प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने शर्त मान ली। हालांकि, ये रकम ऊंट के मुंह में जीरा जैसी थी।
आखिरकार प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, उनके वित्त सलाहकार मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा और RBI गवर्नर एस. वेंकटरमणन के मिलकर देश का सोना गिरवी रखने का फैसला किया। तब तक 1991 का फरवरी आ गया था और कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया था। चंद्रशेखर जून तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे और इस दौरान सोना गिरवी रखने की डील फाइनल हुई।
जुलाई में रिजर्व बैंक ने 46.91 टन सोने को गिरवी रखा और 400 मिलियन डॉलर जुटाए। इस समय तक देश में नरसिम्हा राव की सरकार आ चुकी थी। पब्लिक में इस खबर के आने के बाद मुद्दे ने इतना जोर पकड़ा कि मनमोहन सिंह को संसद में सफाई देनी पड़ी। जब उसी साल देश के आर्थिक हालात सुधरने शुरू हुए तो सोना वापस खरीद लिया गया।
जब PM चंद्रशेखर ने मान से कहा- तलवार म्यान में रख लीजिए
चंद्रशेखर निडर और बेखौफ नेता थे। एक बार पंजाब के अलगाववादी नेता सिमरनजीत सिंह मान लंबी तलवार के साथ उनसे मिलने प्रधानमंत्री आवास पहुंचे। सुरक्षा गार्ड ने यह कहकर रोक दिया कि तलवार के साथ प्रधानमंत्री से नहीं मिल सकते। सिमरनजीत सिंह मान ने तलवार देने से मना कर दिया।
चंद्रशेखर तक यह बात पहुंची। उन्होंने मान को तलवार के साथ आने की इजाजत दे दी। वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई अपनी किताब ‘भारत के प्रधानमंत्री’ में लिखते हैं- चंद्रशेखर के निजी सुरक्षा अधिकारी ने सावधानी के तौर पर दरवाजा आधा खुला छोड़ दिया था। वो बाहर से ही मान और उनकी तलवार पर नजर रखे हुए थे।
बातचीत के बीच मान चंद्रशेखर के सामने पहुंचे। मान ने आधी तलवार खींची और बोले- यह पुरखों से मेरे पास है और बहुत घातक है। इस पर चंद्रशेखर ने कहा- इसे म्यान में रख लीजिए। मेरे पुरखों के घर बलिया में इससे बड़ी तलवार मौजूद है, जो इससे ज्यादा घातक और संहारक है।
छात्र नेता रहे चंद्रशेखर का लोहिया से झगड़ा
बलिया में जन्म लेने वाले चंद्रशेखर ने इलाहाबाद से पढ़ाई की। इन्होंने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत सोशलिस्ट पार्टी से हुई फिर लोहिया के दल में चले गए। लालू-मुलायम की तरह चंद्रशेखर कभी भी लोहिया के चेले के तौर पर नहीं जाने जाते। वो उनके साथ होने वाली लड़ाई के लिए जाने जाते है।
चंद्रशेखर इलाहाबाद पहुंचे थे, समाजवादी नेता आचार्य नरेंद्र देव को न्यौता देने के लिए। बलिया में छात्रों की एक सभा थी। आचार्य बीमार थे और उस समय उनके साथ लोहिया भी मौजूद थे। आचार्य ने चंद्रशेखर से कहा कि आप डॉ. लोहिया को अपने साथ ले जाएं। मेरी जगह वो सभा का हिस्सा बनेंगे।
लोहिया ने कहा- मुझे तो कलकत्ता जाना है, अपनी पार्टी की कार्यकाणी बैठक के लिए। मैं नहीं जा सकता। इस पर चंद्रशेखर बोले- आप मेरे साथ चलिए। मैं आपको वापसी में अपनी जीप में बक्सर छोड़ दूंगा। जहां से आपको कलकत्ता की ट्रेन मिल जाएगी। डॉ. लोहिया तैयार हो गए।
जैसे ही वो बलिया रेलवे स्टेशन पर उतरे वो जीप ढूंढने लगे। चंद्रशेखर ने समझाया कि डॉ. साहब आपको तो शाम को जीप चाहिए। सही समय पर जीप मिल जाएगी।
डॉ. साहब बड़बड़ाने लगे। चंद्रशेखर को यह बात अच्छी नहीं लगी। उन्हें यह बात बुरी लगी कि और वो सोचने लगे कि इन्हें यह तो समझना चाहिए कि मैं एक युवा नेता हूं और उन्हें विश्वास के साथ बलिया लाया हूं तो अपने कहे का मान भी रखूंगा। उन्होंने दोबारा डॉ. लोहिया को समझाया।
लोहिया बड़बड़ाते रहे। इस पर चंद्रशेखर को गुस्सा आ गया। उन्होंने दोपहर के समय लोहिया से कहा कि डॉक्टर साहब वो खड़ी है आपकी जीप और वो रहा रास्ता। आप चले जाइए, हमें आपकी सभा की जरूरत नहीं।
लोहिया इस बर्ताव से सन्न रह गए। यह उनके जीवन का पहला मौका था जब किसी युवा नेता ने तन कर उनके साथ इस तरह से बात की हो।
दाढ़ी बढ़ाने पर RSS ने किया था सवाल
चंद्रशेखर जब छात्र नेता थे तब से दाढ़ी रखते थे। जब वो देश की राजनीति में सक्रिय हुए तब कुछ लोगों ने उन्हें शेव करने की सलाह दी थी। चंद्रशेखर हमेशा एक ही बात दोहराते कि मेरी दाढ़ी का मेरी राजनीति से कोई लेना देना नहीं। चंद्रशेखर दाढ़ी क्यों रखा करते थे इसके पीछे एक कहानी है।
वो इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में हिंदू हॉस्टल में रहते थे। उसी हॉस्टल में रहने वाले उनके एक दोस्त को टीबी की बीमारी हो गई थी। उस दोस्त ने चंद्रशेखर से पूछा कि मुझे इस इंटरव्यू के लिए जयपुर जाना है। फर्स्ट क्लास का टिकट मिला है। वहां तीन दिन रहना है। अगर तुम चलते तो मैं भी चला जाता, ये मेरे जीवन का गोल्डन चांस है।
चंद्रशेखर उसके साथ जाने काे तैयार हो गए। उससे पहले चंद्रशेखर क्लीन शेव रहते थे। दोस्त इंटरव्यू के चला गया और चंद्रशेखर जिन्हें रोजाना शेव करने की आदत थी वो नाई की दुकान ढूंढने लगे। उन्हें जयपुर की सड़कों पर लोग ईंट पर बैठकर लोग दाढ़ी बनवाते दिखे। वो वापस होटल लौट आए। दूसरे और तीसरे दिन भी दाढ़ी बनवाने गए, लेकिन उनके मनमुताबिक जगह नहीं दिखी। इस तरह उनकी दाढ़ी बढ़ती गई। जब इलाहाबाद लौटकर आए तो कुछ दोस्तों ने कहा कि दाढ़ी तुम पर जंच रही है, इसे रख लो। उन्हें भी यह बात सही लगी और वो दाढ़ी रखने लगे।
चंद्रशेखर सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े थे। एक बार RSS से जुड़े कुछ लोगों ने उनसे कहा- दाढ़ी रखकर तुम अशोक मेहता बनना चाहते हो क्या?
चंद्रशेखर ने जवाब दिया- नहीं। मैं गोवलकर बनना चाहता हूं। दरअसल अशोक मेहता सोशलिस्ट पार्टी के बड़े नेता थे। वहीं गोवलकर यानी माधव सदाशिवराव गोवलकर RSS के दूसरे सरसंघचालक हैं, जिनका प्रभाव देशभर में था। दोनों ही दाढ़ी रखा करते थे।
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