हिंदी की ‘कल्ट क्लासिक’ फिल्म ‘जाने भी दो यारो’ को 15 साल हो गए हैं। हिंदी सिनेमा के इतिहास में हास्य को लेकर कई फिल्में बनीं, लेकिन ‘जाने भी दो यारो’ जैसी कोई नहीं। हाल ही में समांतर सिनेमा के प्रमुख फिल्मकार, लेखक सईद मिर्जा ने एक किताब लिखी है- ‘आई नो द साइकोलॉजी ऑफ रैट्स’, जिसके केंद्र में कुंदन शाह (1947-2017) हैं। नचिकेत पातवर्धन के फेयरलाइन रेखांकन से सजी यह किताब असल में सैद-कुंदन की यारी की दास्तान है, जो स्मृतियों के रूप में लिखी गई है। इसका संग हमारा समय और समाज भी आता है।
इस किताब को सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है ‘जाने भी दो यारो‘ फिल्म की याद आती है। संक्षेप में, ‘जाने भी दो यारो’ फिल्म दो संघर्षशील, ईमानदार दृष्टिकोण विनोद और सुधीर की कहानी है, जो एक बिल्डर के भ्रष्टाचार को परदाफाश करते हैं। ‘हम होंगे तय’ के विश्वास के साथ जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते हैं, हम एक ऐसा समाज देखते हैं जिसमें सब कुछ काला है। हास्य-व्यंग्य को बनाता है यह फिल्म निर्ममता से सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था को उधेड़ती है। चुटीले संवाद से जिस तरह दर्शकों का मनोरंजन करता है वह इसे ‘समरेख’ बनाता है। यह फिल्म न तो पॉपुलर सिनेमा का रास्ता अख्तियार करती है और न ही समांतर सिनेमा की तरह नीरस ही है। सिनेमा निर्माण को लेकर जो प्रयोग यहां है, जो नवता है उसे खुद कुंदन आगे जारी नहीं रख पाए। उन्होंने जो टीवी सीरियल डायरेक्ट किया (ये जो है जिंदगी, नुक्कड़, वागले की दुनिया) हालांकि उनकी याद लोगों को अब भी है।
फिल्म ‘जाने भी दो यारो’ का खास महाभारत का प्रसंग आज भी गुडगुडर है, लेकिन कुछ समय बाद दृष्टिहीन ‘धृतराष्ट्र’ के इस सवाल से हम नजर नहीं चुराते कि-‘ये क्या हो रहा है’। इस फिल्म में कई ऐसे प्रसंग हैं जिनका कोई ‘लॉजिक’ नहीं है, एब्सर्ड है। महाभारत का प्रसंग भी ऐसा ही है। हमारा समय भी तो ऐसा ही है, जिसमें कई चीजें बिना तर्क के चलती जा रही हैं और हम उन्हें देखते रहते हैं। हमें पता ही नहीं चलता कि हंसना है या रोना!
इस किताब में पिछले सौ सालों की महत्वपूर्ण राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक घटनाओं पर तल्ख टीका-टिप्पणी भी है, जो ज्यादातर बातचीत के जरिए आई है। एक शोक गीत की तरह यह किताब दरपेश है। क्या ‘जाने भी दो यार’ फिल्म भी एक शोक गीत नहीं है? इस पुस्तक से हम कुंदन के मानसिक रूप से घिरे हुए हैं, उनकी वैचारिक दृष्टि से परिचित होते हैं। सत्ता के दशक के अधिवक्ता-पुथल से अधिकार समय में एफ़आईआई कैंपस का विवरण काफी दिलचस्प है। कैंपस का बोधिवृक्ष (विजडम ट्री) इसके गवाह हैं।
सात लाख रुपये में बनी फिल्म
वर्ष 1982 में कुंदन ने एफ़आईआई और एनएसडी के कलाकारों के साथ मिलकर बहुत कम बजट (एनएफडीसी के सहयोग से) सात लाख रुपए में फ़िल्म बनाई थी। नसीरूद्दीन शाह, ओम पुरी, पंकज कपूर, भक्ति बर्वे, नीना गुप्ता, रवि बासवानी, सतीश कौशिक, सतीश शाह जैसे मंजे कलाकार एक साथ कम ही फिल्म में नज़र आए। साथ ही परदे के पीछे रंजीत कपूर, पवन मल्होत्रा, सुधीर मिश्रा, विनोद चोपड़ा (उनकी फिल्म में भी छोटी भूमिका थी), रेणु सलूजा (संपादक) की भूमिका कम महत्वपूर्ण नहीं थी। यह फिल्म एक बेहतरीन ‘टीम वर्क’ और काम के प्रति नज़रिया है, समर्पण का भी उदाहरण है। असल में यारों की यारी ने ‘जाने भी दो यारो’ को ‘कल्ट क्लासिक’ बनाया है।
सईद और कुंदन की दोस्ती की स्क्रिप्ट एफटीआईआई, फितूर (1973-76) में लिखी गई थी, जहां वे साल 1973 में मिले और दोनों की भूमिका ताउम्र रही। अपने जीवन में कुंदन ने काफी हद तक दावा किया था। फिल्म निर्देशन का प्रशिक्षण लेने के बाद इंग्लैंड में वे क्लार्क की नौकरी करने लगे थे, फिर वापस लौटने के कुछ साल बाद उन्होंने साइड के साथ सहायक निर्देशन के रूप में काम करना शुरू किया। सईद एक सांस्कृतिक संबंध से आए थे और उनके मार्क्सवादी विचार को लेकर काफी विचार थे। इसके विपरीत एक सामान्य गुजराती बनिया परिवार के बीच से जाने वाले कुंदन के लिए वैचारिक यात्रा आसान नहीं थी। उनके व्यक्तित्व और वैचारिक दृष्टि के विकास में एफ़आईआई कैंपस ने अहम भूमिका निभाई।
एक पॉकेट में बचपन, दूसरे में शराब
इस किताब में कुंदन एक मेहनती, सहज, संवेदनशील इंसान और फिल्मकार के रूप में सामने आते हैं जो प्रभुत्ववादी और सांप्रदायिक राजनीति का गहरा मथती था। किताब में सैयद एक प्रसंग का जिक्र करते हैं कि कोर्स के दूसरे साल में चर्चित फिल्मकार ऋत्विक घटक संस्थान आए थे और उन्हें (एक क्लास) पढ़ाया था। ऋत्विक घटक समवर्ती सिनेमा के पुरोधा मणि कौल, कुमार शाहीनी, जॉन अब्राहम के गुरु थे, लेकिन सैयद-कुंदन ने जब संस्थान में जब लिया, तब ऋत्विक जायके थे।
बहरहाल, सईद लिखते हैं कि कुंदन ने कक्षा के दौरान घटक से पूछा था कि ‘कैसे कोई अच्छा निर्देशक बनता है?’ उन्होंने सिनेमा पर टेक्स्ट बुक रीडिंग, तकनीक कुशलता हासिल करने को कहा। साथ ही उन्होंने जोड़ा था कि ‘एक अच्छा निर्देशन एक जेब में अपने बचपन को और दूसरी में शराब की खाई लेकर आता है।’ फिर कंपोनेंट ने कुंदन से पूछा कि मेरी बात समझ में आई? जिस पर कुंदन ने कहा था- हां, सर। अपने पर विश्वास रखो और सहज ज्ञान को मत छोड़ो’। सैयद हैं कि ‘कुंदन ने वही किया!’ किताब का शीर्षक कुंदन शाह की एक बतकही से कर्ज लिया गया है। पर इसका क्या अर्थ है? असल में, एक सिद्ध रचनाकार ही एक उदास गिरगिट से बात कर सकता है, एक चूहे के मनोवैज्ञानिक को समझ सकता है।
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पहले प्रकाशित : 06 फरवरी, 2023, 15:58 IST